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________________ कर्तृ-कर्माधिकार १५१ विशेषार्थ- प्राप्य, विकार्य और निर्वर्त्य के भेद से पुद्गलद्रव्यात्मक कर्म के तीन भेद हैं। व्याप्यव्यापकभाव का अभाव होने से यह आत्मा तीनों प्रकार के पुद्गलद्रव्यात्मक कर्म को न ग्रहण करता है, न परिणमाता है, न उपजाता है, न करता है और न बाँधता है परन्तु व्याप्यव्यापकभाव के अभाव में भी जो ऐसा कथन किया जाता है कि आत्मा उपर्युक्त तीन प्रकार के पुद्गलद्रव्यात्मक कर्म को ग्रहण करता है, परिणमाता है, उपजाता है, करता है और बाँधता है, यह उपचार कथन है। यह उपचारकथन व्यवहारनय का विषय है।।१०७।। आगे इसी उपचार को दृष्टान्त द्वारा दिखाते हैंजह राया ववहारा दोसगुणुप्पादगो त्ति आलविदो । तह जीवो ववहारा दव्वगुणुप्पादगो भणिदो ।।१०८।। ___ अर्थ- जिस प्रकार व्यवहार से राजा, प्रजा में दोष और गुणों का उत्पादक है, ऐसा कहा गया है उसी प्रकार व्यवहार से जीव, पुद्गलद्रव्य के गुणों का उत्पादक है, ऐसा कहा गया है। ऐसी पुरानी श्रुति भी है राज्ञि धर्मिणि धर्मिष्ठाः पापे पापा: समे समाः। राजानमनुवर्तन्ते यथा राजा तथा प्रजा।। अर्थात् राजा के धर्मात्मा बनने पर लोग धर्मात्मा होते हैं, पापी होनेपर पापी होते हैं और सम होनेपर सम होते हैं। लोग राजा का ही अनुसरण करते हैं। सो ठीक ही है क्योंकि जैसा राजा होता है वैसी प्रजा होती है। विशेषार्थ- जिस प्रकार लोगों के गुण और दोष व्याप्यव्यापकभाव होने से स्वभाव से ही उत्पन्न होते हैं, राजा के साथ उनका कोई व्याप्यव्यापकभाव नहीं रहता, तो भी राजा उन गुणों और दोषों का उत्पादक है, ऐसा उपचार होता है, उसी प्रकार व्याप्यव्यापकभाव होने से पुद्गलद्रव्य के गुण और दोष स्वभाव से ही उत्पन्न होते हैं, जीव के साथ उनका व्याप्यव्यापकभाव नहीं रहता तो भी जीव उनका उत्पादक है, ऐसा उपचार होता है। तात्पर्य यह है कि जैसे लोक के व्याप्यव्यापकभाव सम्बन्ध के द्वारा स्वभाव से ही गुणों और दोषों की उत्पत्ति होती है, उनके होने में राजा के व्याप्यव्यापकभाव सम्बन्ध का अभाव है तो भी उन गुणों और दोषों को उत्पन्न करनेवाला राजा है, ऐसा उपचार है। ऐसे ही व्याप्यव्यापकभाव सम्बन्ध के द्वारा पुद्गलद्रव्य के गुण और दोष स्वभाव से ही उत्पन्न होते हैं, उनके होने में जीव का व्याप्यव्यापकभाव सम्बन्ध नहीं है तो भी जीव उनका उत्पादक है, ऐसा उपचार होता है।।१०८।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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