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________________ १५० परिणमन को प्रमुखता दी जाती है, इसलिये वह उपचार कथन कहलाता है । । १०५ ।। समयसार आगे इस उपचार कथन को दृष्टान्त द्वारा प्रतिपादित करते हैंजोधेहिं कदे जुद्धे राएण कदं ति जंपदे लोगो । तह ववहारेण कदं णाणावरणादि जीवेण ।। १०६ ।। अर्थ- जैसे रणभूमि में योद्धा लोग जाकर युद्ध करते हैं अर्थात् युद्ध के करनेवाले शूरवीर योद्ध ही हैं परन्तु लौकिक मनुष्यों का यह व्यवहार है कि राजा ने युद्ध किया। ऐसे ही लौकिक मनुष्यों का यह व्यवहार है कि ज्ञानावरणादि कर्म जीव ने किये। भावार्थ- जिस प्रकार युद्धरूप परिणाम से स्वयं परिणमन करनेवाले योद्धाओं के द्वारा युद्ध किये जाने पर स्वयं युद्धरूप परिणमन न करनेवाले राजा के विषय में लोग ऐसा कथन करते हैं कि यह युद्ध राजा ने किया है, परन्तु ऐसा कथन उपचार है, परमार्थ नहीं। इसी प्रकार ज्ञानावरणादिकर्म रूप परिणाम से स्वयं परिणमन करनेवा पुद्गलद्रव्य के द्वारा ज्ञानावरणादिकर्मों के किये जाने पर ज्ञानावरणादि कर्मरूप स्वयं परिणमन न करनेवाले आत्मा के विषय में व्यवहार से ऐसा कथन होता है। कि जीव ने ज्ञानावरणादि कर्म किये, परन्तु यह कथन उपचार है, परमार्थ नहीं। जिस प्रकार युद्धरूप परिणमन होता तो योद्धाओं में है परन्तु उसके कर्तृत्व का आरोप राजा में किया जाता है उसी प्रकार कर्मरूप परिणमन होता तो पुद्गलद्रव्य में है परन्तु उसके कर्तृत्व आरोप जीव में किया जाता है। अन्य द्रव्य के परिणमन का अन्य द्रव्य में आरोपकर कथन करना उपचार कथन है । व्यवहारनय से ऐसा कथन होता है, निश्चय से नहीं । । १०६ ।। आगे इसी व्यवहारनय के कथन को दिखलाते हैं उप्पादेदि करेदि य बंधदि परिणामएदि गिण्हदि य । आदा पुग्गलदव्वं ववहारणयस्स वत्तव्वं।।१०७।। अर्थ- आत्मा पुद्गलद्रव्य को उत्पन्न करता है, कराता है, बाँधता है, परिणमाता है और ग्रहण करता है यह व्यवहारनय का कथन है। वास्तव में न तो उत्पन्न करता है, न कराता है, न बाँधता है, न परिणमाता है और न ग्रहण करता है, केवल व्यवहार की यह महिमा है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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