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________________ कर्तृ-कर्माधिकार १४९ की मर्यादा से, भिन्न द्रव्य और भिन्न गुण का भिन्न द्रव्य और भिन्न गुण में प्रवेश निषिद्ध है। अतः कलशकार उस कलश में न तो अपने आपको प्रविष्ट कराता है और न अपने गुणों को ही प्रविष्ट कराता है। अन्य द्रव्य में प्रवेश किये बिना अन्य वस्तु को परिणमाना अशक्य है । इसलिये जब कलशकार कलश में अपने द्रव्य और अपने गुणों को धारण नहीं कर सकता तब तत्त्वदृष्टि से वह उसका कर्ता प्रतिभासमान नहीं होता। ऐसे ही पुद्गलमय ज्ञानावरणादि कर्म, पुद्गलद्रव्य और उसके गुणों में स्वभाव से ही रह रहा है। क्योंकि अन्यद्रव्य का अन्यद्रव्य में और अन्य गुण का अन्य गुण में प्रवेश नहीं कराया जा सकता, इसलिये आत्मा उस ज्ञानावरणादिकर्म में न तो अपने आत्मा को धारण करता है और न अपने गुणों को धारण करता है। अन्य द्रव्य में प्रवेश किये बिना अन्यवस्तु का परिणमाना शक्य है। इसलिये जब आत्मा ज्ञानावरणादिकर्म में अपने द्रव्य और गुणों को धारण नहीं कर सकता तब तत्त्वदृष्टि से वह उनका कर्ता कैसे प्रतिभासित हो सकता है। अतः परमार्थ से यही सिद्ध हुआ कि आत्मा पुद्गलकर्मों का कर्ता नहीं है ।। १०४ ।। आगे इससे अन्य जो कथन है वह उपचार है, यह कहते हैं जीव हेदुभूदे बंधस्स दु पस्सिदूण परिणामं । जीवेण कदं कम्मं भण्णदि उवयारमत्तेण ।। १०५ ।। अर्थ- यह जीव जब रागादिभावरूप परिणमन करता है तब जीव के निमित्त को पाकर पुद्गलद्रव्य का ज्ञानावरणादि कर्मरूप परिणमन हो जाता है उसे देखकर उपचारमात्र से यह कहा जाता है कि जीव ने ज्ञानावरणादि कर्म किये। विशेषार्थ - निश्चय से इस लोक में आत्मा स्वभाव से पौगलिक ज्ञानावरणादि कर्मों का निमित्त नहीं है, यह वस्तु की मर्यादा है परन्तु अनादिकालीन मोह का सम्बन्ध होने से आत्मा में अनेक प्रकार के अज्ञानभाव होते हैं उनका निमित्त पाकर पौद्गलिक ज्ञानावरणादि कर्मों का स्वयमेव आत्मा के साथ एकक्षेत्रावगाह रूप बन्ध हो जाता। उसे देखकर 'आत्मा ने कर्म किये' ऐसा निर्विकल्प ज्ञान से भ्रष्ट और विकल्पों से तन्मय जीवों का विकल्प होता है परन्तु वह उपचार ही है, परमार्थ नहीं है। वास्तव में आत्मा और पुद्गल में जो वैभाविक शक्ति है उसके कारण आत्मा में रागादिरूप और पुद्गलद्रव्य में ज्ञानावरणादि कर्म रूप परिणमन स्वयं होता है, ऐसा उपादान की प्रमुखता में कथन होता है और जीव के रागादिभावों का निमित्त पाकर पुद्गलद्रव्य में कर्मरूप परिणमन होता है ऐसा निमित्त की प्रधानता में कथन होता है । निमित्त की प्रधानता में द्रव्य के स्वकीय परिणमन को गौणकर परद्रव्यजनित For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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