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समयसार
स्वकीय मान रहा है। इस अज्ञानदशा की अपेक्षा भी जब जीव के कर्तृ-कर्म और भोक्तृ-भोग्यभाव का विचार करते हैं तब यही निष्कर्ष निकलता है कि जीव अपने शुभ-अशुभ भावों का ही कर्ता और भोक्ता हो सकता है, परद्रव्य का कर्ता और भोक्ता नहीं हो सकता। यद्यपि परमार्थ से जीव शुभ-अशुभ भावों का भी कर्ता और भोक्ता नहीं है तो भी यहाँ अशुद्ध उपादान की अपेक्षा उसे उनका कथंचित् कर्ता और भोक्ता कहा गया है। तथापि परभाव का कर्त्ता तो वह कदापि नहीं है।।१०२।।
आगे परभाव पर के द्वारा हो भी नहीं सकता, यही दिखाते हैंजो जह्मि गुणे दव्वे सो अण्णम्हि दु ण संकमदि दव्वे। सो अण्णमसंकंतो कह तं परिणामए दव्वं ।।१०३।।
अर्थ- जो वस्तु जिस द्रव्य और गुण में वर्तता है वह वस्तु अन्य द्रव्य व गुण में संक्रमणरूप नहीं होता अर्थात् अन्यरूप पलटकर नहीं होता। वह वस्तु जब अन्य में संक्रमण नहीं करता है तब अन्य द्रव्य को कैसे परिणमा सकता है?
विशेषार्थ- इस लोक में जितने कुछ वस्तु-विशेष हैं वे सब अपने चेतनस्वरूप अथवा अचेतनस्वरूप द्रव्य और गुण में सहज स्वभाव से अनादि से ही वर्त रहे हैं, वस्तुस्थिति की इस अचलित सीमा का कोई उल्लङ्घन नहीं कर सकता। इसलिये जो वस्तु जिस द्रव्य और गुणरूप अनादि से है वह उसी द्रव्य और गुणरूप सदा रहती है, अन्य द्रव्य और अन्य गुण में उसका संक्रमण नहीं हो सकता, अर्थात् पलटकर अन्यरूप नहीं हो सकता। जब अन्य द्रव्य और अन्य गुण में उसका संक्रमण नहीं तब वह उन्हें अन्यरूप कैसे परिणमा सकता है? इससे यह निश्चय हुआ कि परभाव किसी के द्वारा नहीं किया जा सकता।।१०३।।
अतः निश्चित हुआ कि आत्मा पुद्गलकर्मों का कर्ता नहीं है, यही दिखाते हैं
दव्वगुणस्स य आदा ण कुणदि पुग्गलमयह्मि कम्महि। तं उभयमकुव्वंतो तह्मि कहं तस्स सो कत्ता ।।१०४।।
अर्थ- आत्मा पुद्गलमय ज्ञानावरणादिकर्म में न तो अपने द्रव्य को करता है और न गुण को करता है। जब वह उसमें द्रव्य-गुण-दोनों को नहीं करता तब वह उसका कर्ता कैसे हो सकता है?
विशेषार्थ- जैसे निश्चय से मृत्तिकामय कलश कर्म, मृत्तिका द्रव्य और मृत्तिका के स्पर्श, रस, गन्ध, वर्णरूप, गुणों में स्वभाव से विद्यमान रहता है, क्योंकि वस्तु
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