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________________ कर्तृ-कर्माधिकार १४५ अर्थ- यदि यह आत्मा परद्रव्यों को करे तो नियम से तन्मय हो जावे, किन्तु यह आत्मा तन्मय नहीं होता, इसलिये परद्रव्यों का कर्ता नहीं होता। विशेषार्थ- यदि निश्चयकर यह आत्मा परद्रव्यात्मक कर्म को करने वाला हो जावे तो परिणाम-परिणामिभाव की अन्यथा अनुपपत्ति होने से नियम से तद्रूप हो जावे, किन्तु ऐसा बन नहीं सकता, क्योंकि भिन्नद्रव्य रूप होने से स्वीयद्रव्य का उच्छेद हो जावे। अत: यह सिद्धान्त निर्विवाद सिद्ध हुआ कि एकद्रव्य अन्यद्रव्यरूप नहीं हो सकता। इसलिये व्याप्यव्यापकभाव के द्वारा आत्मा परद्रव्य का कर्ता नहीं है। एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य में अत्यन्ताभाव है, अत: वह अन्य द्रव्यरूप नहीं हो सकता और अन्यरूप हुए बिना कोई द्रव्य किसी अन्य द्रव्य का कर्ता नहीं हो सकता। निश्चयदृष्टि से जिसमें व्याप्यव्यापकभाव होता है उसी में कर्त-कर्मभाव बनता है, जैसे घट व्याप्य है और मिट्टी व्यापक है, तो यहाँ घट का कर्ता मिट्टी हो सकती है क्योंकि मिट्टी घटाकार परिणत हो जाती है। परन्तु आत्मा घटपटादिरूप परिणमन त्रिकाल में भी नहीं कर सकता, इसलिये आत्मा को घटपटादिक का कर्ता मानना समीचीन नहीं है। यह उपादानदृष्टि से कथन है। इसमें उपादानोपादेयभाव की प्रधानता रहती है और निमित्त-नैमित्तिकभाव की गौणता होती है।।९९।। आगे निमित्तनैमित्तिकभाव से भी आत्मा घटपटादिक का कर्ता नहीं है, यह दिखाते हैं जीवो ण करेदि घडं णेव सेसगे दव्वे। जोगुवओगा उप्पादगा य तेसिं हवदि कत्ता ।।१०।। अर्थ- जीवद्रव्य न तो घट को करता है, न पट को करता है और न बाकी के अन्य द्रव्यों को करता है, किन्तु आत्म के योग और उपयोग उन सब कार्यों के कर्ता होते हैं। विशेषार्थ- जो घटादिक और क्रोधादिक परद्रव्यात्मक कर्म हैं यदि इन्हें आत्मा व्याप्य-व्यापकभाव से करे तो तद्रूपता का प्रसङ्ग आ जावे और निमित्त-नैमित्तिक-भाव से करे तो नित्य कर्तृपन का प्रसङ्ग आ जावे, परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि न तो आत्मा उनसे-तन्मय ही है और न नित्यकर्ता ही है। अत: न तो व्याप्य-व्यापकभाव से कर्ता है और न निमित्त नैमित्तिकभाव से कर्ता है किन्तु अनित्य जो योग और उपयोग हैं वे ही घटपटादिद्रव्यों के निमित्त कर्ता हैं। उपयोग और योग आत्मा के विकल्प और व्यापार हैं अर्थात् जब आत्म ऐसा विकल्प करता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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