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________________ १४४ समयसार आगे आत्मा परभाव का कर्ता क्यों नहीं है? इसका उत्तर देते हैं __ अनुष्टुप आत्मा ज्ञानं स्वयं ज्ञानं ज्ञानादन्यत् करोति किम्। परभावस्य कर्तात्मा मोहोऽयं व्यवहारिणाम्।।६२।। अर्थ- आत्मा ज्ञान है, जब आत्मा स्वयं ज्ञानरूप है तब ज्ञान से भिन्न अन्य किसको करे? आत्मा परभाव का कर्ता है, यह कहना व्यवहारी जनों का मोह हैअज्ञान है। __भावार्थ- गुण और गुणी का अभेददृष्टि से जब कथन होता है तब जो गुण है वही गुणी है और जो गुणी है वहीं गुण है। इस तरह आत्मा और ज्ञान दोनों एक ही हैं। जब आत्मा स्वयं ज्ञान हो गया तब वह ज्ञान के सिवाय अन्य किसको करे? यद्यपि आत्मा में रागादिक भाव प्रतिभासमान होते हैं, पर भेदज्ञान ने उन्हें मोहजन्य होने के कारण आत्मा से पृथक् कर दिया। अब आत्मा के पास ज्ञान के सिवाय रहा ही क्या, जिसका वह कर्ता हो सके? इस स्थिति में आत्मा को परभाव का कर्ता कहना, यह व्यवहारी जीवों का मोह ही है-अज्ञान ही है।।६२।। आगे यही दिखाते हैंववहारेण दु आदा करेदि घड-पड-रथाणि दव्वाणि। करणाणि य कम्माणि य णोकम्माणीह विविहाणि।।९८।। अर्थ- आत्म व्यवहारनय से घट, पट, रथ आदि कार्यों को करता है, स्पर्शनादि पञ्चइन्द्रियों को करता है, ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्मों तथा क्रोधादिक भावकर्मों को करता है और शरीरादिक नानाप्रकार के नोकर्मों को करता है। विशेषार्थ- क्योंकि व्यवहारी जीवों को जिस प्रकार यह प्रतिभास होता है कि यह आत्मा अपने विकल्प और प्रयत्न के द्वारा घटादिक परद्रव्यरूप बाह्य कर्म को करता है उसी प्रकार क्रोधादिक परद्रव्य रूप समस्त अन्त:कर्म को भी करता है क्योंकि दोनों में कुछ विशेषता नहीं है, ऐसा व्यामोह अनादिकाल से है, सो यह समीचीन नहीं है।।९८।। आगे वह व्यामोह समीचीन क्यों नहीं है, यह दिखाते हैंजदि सो परदव्वाणि य करिज्ज णियमेण तम्मओ होज्ज। जह्या ण तम्मओं तेण सो ण तेसिं हवदि कत्ता।।९९।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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