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कर्तृ-कर्माधिकार
१४३ अर्थ- ज्ञान से ही अग्नि और पानी में क्रम से उष्णता और शीतलता की व्यवस्था होती है, ज्ञान से ही लवण के स्वादभेद का निराकरण होता है और ज्ञान से ही स्वकीय रस-आत्मस्वभाव से सुशोभित चैतन्यधातु-आत्मा और क्रोधादिक में भेद सिद्ध होता है, ऐसा भेद जो कि कर्तृत्वभाव को नष्ट करने वाला है।
भावार्थ- ज्ञान में ही ऐसी सामर्थ्य है कि वह अग्नि में उष्णता और जल में शीतता की व्यवस्था करता है। ज्ञान ही इस बात का बोध कराता है कि यह लवण का स्वाद है और यह व्यञ्जन का स्वाद है। और ज्ञान ही स्वरस के विकास से सुशोधित चैतन्यपिण्ड और क्रोधादिक के भेद को ज्ञात कराता है तथा कर्तभाव के भेद का भेदन करता हुआ आत्मा के अकर्तापन का ज्ञान कराता है।
अग्नि के सम्बन्ध से जल जब गरम हो जाता है तब ज्ञान की ही यह महिमा है कि वह इसका बोध करता है कि जल में जो यह उष्णता की प्रतीति हो रही है वह नैमित्तिक है परमार्थ से जल की नहीं, किन्तु अग्नि के निमित्त से ऐसा परिणमन है, परमार्थ से जल शीत है। इसी तरह भोजन में लवण के सम्बन्ध से क्षारपन का स्वाद आता है। तत्त्वरीति से विचार किया जावे तो क्षारपन भोजन का नहीं, लवण का है, लवण के निमित्त से भोजन में क्षारपन का स्वाद आ रहा है। इसी प्रकार चैतन्यरूप आत्मा में जो क्रोधादिक की प्रतीति हो रही है वह वास्तव में मोहनीय नामक पुद्गलकर्म के निमित्त से है, आत्मा का चैतन्यगुण तो स्वभाव से स्वच्छ है।।६०।। आगे आत्मा आत्मभाव का करता है, पर का नहीं, यह कहते हैं
अनुष्टुप् अज्ञानं ज्ञानमप्येवं कुर्वनात्मानमञ्जसा।
स्यात्कर्तात्मात्मभावस्य परभावस्य न क्वचित्।।६१।। अर्थ- परमार्थ से ज्ञानरूप आत्मा को मोहादिक कर्म के निमित्त से अज्ञानरूप करता हुआ आत्मा, आत्मभाव का ही कर्ता हो सकता है, परभाव का कर्ता कहीं नहीं हो सकता।
भावार्थ- तत्त्वदृष्टि से आत्मा ज्ञानरूप ही है परन्तु मोहकर्म के विपाककाल में वह रागादिरूप परिणति होने के कारण अज्ञानरूप जान पड़ता है। उसी अज्ञानदशा में आत्मा कर्ता होता है परन्तु वहाँ भी आत्मभाव का ही कर्ता होता है, परभाव का कर्ता नहीं होता।।६१।।
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