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समयसार
होकर भागने लगता है। इसी तरह यह आत्मा यद्यपि निराकुल है, ज्ञानघन है, परन्तु अज्ञान से परपदार्थ में अपने आनन्दगुण को खोजता है, इसीके लिए अनेकविध परिश्रम से विषयों का संग्रह करता है और उन्हें पञ्चेन्द्रियों के द्वारा ग्रहण करने की चेष्टा कर सुखी बनना चाहता है। वास्तव में तो उनमें सुख है नहीं, मात्र मनोराज्यवत् कल्पना कर व्यर्थ ही अपना समय बिताता हुआ अनन्त संसार का पात्र बनता है और आकुलित होता हुआ कर्ता बनता है।।५८।। आगे ज्ञानी जानता है, करता कुछ नहीं है, यह कहते हैं
वसन्ततिलकाछन्द ज्ञानाद्विवेचकतया तु परात्मनोर्यो
जानाति हंस इव वाः पयसोर्विशेषम्। चैतन्यधातुमचलं स सदाधिरूढो
जानीत एव हि करोति न किञ्चनापि।।५९।। अर्थ- जिस प्रकार हंस, पानी और दूध की विशेषता को जानता है, इसी प्रकार जो ज्ञान से अपनी विवेचक बुद्धि-भेदज्ञान कला के द्वारा पर और आत्मा के विशेष को जानता है वह सदा अविनाशी चैतन्यधातु का आश्रय लेता हुआ जानता ही है, करता कुछ भी नहीं है।
भावार्थ- जो जीव ज्ञानी हैं वे ज्ञान से पर और आत्मा को विवेक के द्वारा जैसे हंस, दूध और जल को भिन्न-भिन्न जानता है ऐसे ही जानते हैं, वे महामना सदा अचल चैतन्यधातु विज्ञानघन आत्मा का आश्रय करते हुए जाननेवाले होते हैं, करते कुछ भी नहीं हैं। जैसे हंस का स्वभाव है कि वह दुग्ध और जल को पृथक्-पृथक् कर देता है तथा ग्राह्य दूध का आश्रय लेता है, जल को त्याग देता है। ऐसे ही सम्यग्ज्ञानी जीव का यह स्वभाव है कि वह पर और आत्मा को पृथक्-पृथक् जानता है। इसीसे परपदार्थ में ममत्व त्यागकर अपने आत्मस्वरूप में लीन हो जाता है, कुछ अन्य को करता नहीं है।।५९।। अब ज्ञान की महिमा बताते हैं
मन्दाक्रान्ताछन्द ज्ञानादेव ज्वलनपयसोरौष्ण्यशैत्यव्यवस्था
ज्ञानादेवोल्लसति लवणस्वादभेदव्युदासः। ज्ञानादेव स्वरसविकसन्नित्यचैतन्यधातोः
क्रोधादेश्च प्रभवति भिदा भिन्दती कर्तृभावम्।।६०।।
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