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कर्तृ-कर्माधिकार
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भावार्थ - जैसे हस्ती अज्ञान से तृणसहित सुन्दर अन्नादिक आहारों को एकमेक जानकर भक्षण करता है। ऐसी ही आत्मा स्वयं ज्ञानस्वरूप है परन्तु मोह से पर पदार्थों में रक्त हो जाता है। जैसे कोई मनुष्य शिखरिणी को पीकर उसके खट्टे-मीठे स्वाद को न जानकर उसकी इच्छा से गाय को दोहन करता है। शिखरिणी में जो स्वाद आ रहा है वह तो दधि और शर्करा के सम्बन्ध से बिजातीय रस का स्वाद है। उस स्वाद का लोभी उसे न जानकर शिखरिणी पाने के लिए गाय को दुहता है। भला, विचार कर देखो, क्या केवल दुग्ध में वह स्वाद है? नहीं, इसी तरह यह अज्ञानी निराकुलता रूप सुख की तो इच्छा करता है और उसको जानता है नहीं, अतः उसकी प्राप्ति के लिये विषयों में प्रवृत्ति करता है । विषय तो जड़ हैं, उनमें रूप-रस-गन्ध-स्पर्श - शब्द ही तो हैं, सुख नहीं है । जैसे उनमें सुख नहीं है वैसे दुःख भे नहीं है, क्योंकि सुख-दुःखरूप जो परिणमन होता है वह चेतन में ही होता है। यह अज्ञानी मूढ, अन्य में आरोप कर व्यर्थ ही खेद खिन्न होता हुआ अनन्त संसाररूप फल का उपभोक्ता होता है । । ५७ ।।
अब अज्ञान ही कर्तृपन का कारण है, यह कहते हैं
शार्दूलविक्रीडित छन्द
अज्ञानान्मृगतृष्णिकां जलधिया धावन्ति पातुं मृगी
अज्ञानात्तमसि द्रवन्ति भुजगाध्यासेन रज्जौ जनाः ।
अज्ञानाच्च विकल्पचक्रकरणाद्वातोत्तरङ्गाब्धिवत्
शुद्धज्ञानमया अपि स्वयममी कर्त्रीभवन्त्याकुलाः ।। ५८ ।।
अर्थ - अज्ञान से मृगसमुदाय जलबुद्धि से मृगतृष्णा का पान करने के लिये धावन करते हैं, इसी तरह अन्धकार में जनसमुदाय रस्सी में सर्पबुद्धि का अध्यासकर डर से भागने लगते हैं, इसी तरह अज्ञान से नानाप्रकार के विकल्पों को कर हवा से लहराते हुए समुद्र की तरह शुद्ध ज्ञानमय भी जो आत्माएँ हैं वे नानाप्रकार के आकुलित परिणामों को करते हुए कर्ता हो जाते हैं।
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भवार्थ- मृगतृष्णिका अर्थात् मरु देश में सूर्य की किरणों के पड़ने से बालू चमकने लगती है उसमें जल भासने लगता है, उस काल में पिपासाकुल मृगगण उसकी शान्ति के अर्थ वहाँ दौड़कर जाता है परन्तु पास पहुँचने पर जब वहाँ जल नहीं पाता तब फिर आगे दौड़ता है। जल तो वहाँ है नहीं, भ्रान्ति से भटकते-भटकते अन्त दशा को प्राप्त हो जाता है। तथा इसीतरह अन्धकार में जहाँ टेड़ी-मेड़ी रस्सी पड़ी है वहाँ भ्रान्ति से मनुष्य को सर्प का भान होने लगता है और उससे वह भयभीत
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