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कर्तृ-कर्माधिकार
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महिष और अपने आपमें एकत्व का अध्यास करता हुआ अपने आपको महिष मानने लगता है। उस समय वह उस भाव का कर्ता होता है। इसी तरह यह आत्मा अज्ञान से ज्ञेय और ज्ञायक इन दोनों को एक करता हुआ अपने आत्मा में परद्रव्य का अध्यास होने से नोइन्द्रिय के विषयीभूत धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीवान्तर के द्वारा चैतन्यधात के विरुद्ध होने (ज्ञान न होने) तथा इन्द्रियों के विषय किये हुए रूपी पदार्थों के द्वारा केवल बोध के तिरोहित होने से मृतक कलेवर की तरह मूछित परमामृत विज्ञानघनपन कर उस प्रकार के भाव का कर्ता होता है। इसका तात्पर्य यह है कि जैसे आत्मा में क्रोधादिक भाव होते हैं यद्यपि वे विकारी हैं क्योंकि मोहादिक पौद्गलिक कर्मों के निमित्त से जायमान हैं, आत्मा का अहित करने वाले हैं तथा इन्हीं के द्वारा आत्मा अनन्त संसार का पात्र बनता है फिर भी यह अज्ञानी जीव उन्हें निज भाव मानता है। ऐसे ही जो धर्मादिक द्रव्य हैं वे ज्ञान में प्रतिभासमान होते हैं क्योंकि ज्ञान एक ऐसी निर्मल शक्ति है कि जो पदार्थ उसके समक्ष आवे उसे अपने में प्रतिभासित करने लगता है। यद्यपि ज्ञान तद्रूप नहीं हो जाता तो भी अज्ञानी जीव उन्हें अपने समझ अनन्त संसार का पात्र बनकर चतुर्गतियों में परिभ्रमण करता है। इससे यह सिद्धान्त निकला कि ज्ञान से ही कर्तृपन का नाश होता है।।९६।।
आगे यही कहते हैंएदेण दु सो कत्ता आदा णिच्छयविदूहि परिकहिदो। एवं खलु जो जाणदि सो मुंचदि सव्वकत्तित्तं।।९७।।
अर्थ- इस पर और आत्मद्रव्य के एकत्वाध्यास से आत्मा कर्ता होता है ऐसा निश्चय के जाननेवालों ने कहा है, निश्चय से जो ऐसा जानता है वह ज्ञानी निखिल कर्तृपन को त्यागता है।
विशेषार्थ- जिस हेतु से यह आत्मा अपने आपमें पर और आत्मा के एकत्व का संकल्प करता है, उसी हेतु से यह अज्ञानी आत्मा निश्चय से कर्ता प्रतिभासित होता है और जो आत्म इस प्रकार जानता है वह सम्पूर्ण कर्तृपन को त्याग देता है। इसीसे निश्चय कर वह आत्मा अकर्ता होता है। यही दिखाते हैं
इस संसार में निश्चय से जब यह आत्मा अज्ञानी हो जाता है तब इसकी भेदसंवेदन की शक्ति अर्थात् समस्त पदार्थों को पृथक्-पृथक् जानने की सामर्थ्य तिरोहित हो जाती है, अत: उस काल में ज्ञेयमिश्रित ज्ञान का स्वाद लेता है, अनादि से इसकी यही अवस्था हो रही है। इसीसे यह पर और आत्मा को एकरूप जानता
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