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समयसार
अब अज्ञान से आत्मा कर्ता होता है, इसका उपसंहार करते हैंएवं पराणि दव्वाणि अप्पयं कुणदि मंदबुद्धीओ ।
अप्पाणं अवि य परं करेइ अण्णाणभावेण । । ९६ ।।
अर्थ - इस प्रकार मन्द बुद्धि अर्थात् अज्ञानी जीव अज्ञानभाव से परद्रव्यों को आत्मरूप करता है और आत्मा को भी परद्रव्यरूप करता है।
विशेषार्थ - जिस प्रकार यह आत्मा 'मैं क्रोध हूँ' ' इत्यादि के समान और 'मैं धर्मद्रव्य हूँ'' इत्यादि के समान परद्रव्यों को अपना करता है उसी प्रकार आत्मा को भी परद्रव्य रूप करता है। यद्यपि यह आत्मा अशेष वस्तुओं के सम्बन्ध से रहित विशुद्ध चैतन्यमय धातु का पिण्ड है तो भी स्वकीय अज्ञानभाव से ही सविकार और उपाधिसहित चैतन्यपरिणाम के द्वारा उस प्रकार के आत्मभाव का कर्ता प्रतिभासित होता है। इसी से आत्मा के भूताविष्ट व ध्यानाविष्ट पुरुष के सदृश कर्तृत्व का मूल कारण जो अज्ञानभाव है वह प्रतिष्ठा को प्राप्त होता है अर्थात् कर्तृत्व का मूल कारण अज्ञान है यह सिद्ध होता है । यही बात दिखाते हैं
जैसे निश्चय कर जिस समय किसी के शिर पर भूत सवार हो जाता है उस समय वह प्राणी, भूत और आत्मा को एक मानने लगता है और जो मनुष्यों के करने योग्य नहीं है ऐसे व्यापार करने लगता है । वे व्यापार अत्यन्त भयंकर और विशिष्ट व्यापार साध्य हैं, अत्यन्त गम्भीर हैं, वास्तव में मनुष्य उन व्यापारों को नहीं कर सकता है। पर भूताविष्ट मनुष्य उन व्यापारों का अपने आपको कर्ता मानता है । ऐसे ही यह आत्मा भी अज्ञान से भाव्यभावकरूप पर और आत्मा इन दोनों को एक करता हुआ अविकार अनुभूति रूप भावकभाव के अयोग्य विचित्र भाव रूप क्रोधादि विकारों से मिले हुए चैतन्य परिणाम के विकारपन से जो उस प्रकार के भाव होते हैं उनका कर्ता होता है। यह भाव्यभावकभाव की अपेक्षा दृष्टान्त है। अब ज्ञेयज्ञायकभाव की अपेक्षा दूसरा दृष्टान्त देते हैं- जैसे कोई भोला मनुष्य अपरीक्षक आचार्य के आदेश से महिष का ध्यान करने लगा और अज्ञान से ध्यान के काल में महिष तथा अपने आपको एक मानने लगा और ऐसा मानने के बाद आकाश पर्यन्त जिसके शृङ्ग हैं ऐसे महिष का आत्मा में अध्यास होने से जो कुटिया का द्वार था उसमें निकलने से रह गया, क्योंकि कुटिया का द्वार तो मनुष्य के निकलने के योग्य था और यह मनुष्य अपने आपको आकाश पर्यन्त सींगवाला महिष मानने लगा तब द्वार से बाहर किस प्रकार हो ? यहाँ वह ध्यान करनेवाला पुरुष जिस तरह
१. भाव्यभावकभाव के भेदाज्ञान से ।
२. ज्ञेयज्ञायकभाव के भेदाज्ञान से
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