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कर्तृ-कर्माधिकार
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इस तरह भाव्य-भावकविषयक भेद के अज्ञान से कर्म का प्रादुभार्व दिखलाकर अब ज्ञेयज्ञायकभावविषयक भेद के अज्ञान से कर्म का प्रादुर्भाव दिखलाते हैं
तिविहो एसुवओगो अप्पवियप्पं करेदि धम्माई।
कत्ता तत्सुवओगस्स होदि सो अत्तभावस्स ।।९५।।
अर्थ- यह तीन प्रकार का उपयोग आत्मा में जब ऐसा विकल्प करता है कि 'मैं धर्मादिक द्रव्यरूप हूँ तब वह आत्म-परिणामरूप उस उपयोग का कर्ता होता है।
विशेषार्थ- निश्चय से आत्मा का जो विकारसहित चैतन्यपरिणाम है वह सामान्य से एक अज्ञानरूप है और विशेष से मिथ्यादर्शन, अज्ञान तथा अविरति के भेद से तीन प्रकार का है। जब इन परिणामों का उदय रहता है तब पर और आत्मा का न तो विशेषरूप से अर्थात् पृथक्-पृथक् श्रद्धान होता है, न विशेषरूप से ज्ञान होता है और न विशेषरूप से आत्मा परपदार्थों से विरत रहता है। इसी से समस्त स्व और पर के भेद का अपलाप कर ज्ञेय-ज्ञायकसम्बन्ध से पर और आत्मा का तादात्म्य रूप से अनुभव कर कभी तो यह विकल्प करता है कि मैं धर्म हूँ, कभी अधर्म हूँ, कभी आकाश हूँ, कभी काल हूँ, कभी पुद्गल हूँ अथवा जीवान्तर हूँ अर्थात् जो वस्तु ज्ञान में आती है उसी रूप अपने को मानने लगता है और उसी तरह का विकल्प आत्मा में उत्पन्न करता है। इसीसे यह आत्मा मैं धर्म हूँ, मैं अधर्म हूँ, मैं आकाश हूँ, मैं काल हूँ, मैं पुद्गल हूँ, अथवा मैं अन्य जीव स्वरूप हूँ इस प्रकार भ्रान्तिज्ञान के द्वारा उपाधिसहित चैतन्य परिणाम (सविकार चैतन्य) रूप परिणमता हुआ उपाधिसहित चैतन्यपरिणामरूप आत्मभाव का कर्ता होता है। इससे यह स्थित हुआ कि कर्तृत्व का मूल कारण अज्ञान है।
__ आत्मा ज्ञायक है और उसके सिवाय जो धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल तथा अन्य जीव द्रव्य हैं वे ज्ञेय हैं। जिस प्रकार स्वच्छता के कारण दर्पण में घटपटादि पदार्थों के प्रतिबिम्ब पड़ते हैं उसी प्रकार ज्ञायक जो आत्मा उसकी स्वच्छता के कारण उसमें धर्म, अधर्म आदि ज्ञेयों का प्रतिबिम्ब पड़ता है अर्थात् आत्मा में उनका विकल्प आता है। परमार्थ से ज्ञायक (आत्मा) और उसमें पड़े हुए ज्ञेयों (धर्माधर्मादि द्रव्यों) के विकल्प भिन्न-भिन्न पदार्थ हैं। परन्तु अज्ञान से यह जीव दोनों में एकत्व बुद्धिकर ऐसा विकल्प करता है कि मैं धर्मद्रव्य हूँ, मैं अधर्मद्रव्य हूँ इत्यादि। इस तरह परद्रव्य रूप ज्ञेयों में आत्मबुद्धि रूप अज्ञान से यह जीव कर्मों का कर्ता होता है।।९५।।
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