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समयसार
अर्थ- यह तीन प्रकार का उपयोग जब आत्मा में ऐसा विकल्प करता है कि 'मैं क्रोध हूँ तब वह आत्मभावरूप उस उपयोग का कर्ता होता है।
विशेषार्थ- यह जो आत्मा का सविकार चैतन्य परिणाम है वह सामान्य से तो एक अज्ञानरूप है और विशेष से मिथ्यादर्शन, अज्ञान और अविरति के भेद से तीन प्रकार का है। जिस काल में पर और आत्मा का न तो विशेष दर्शन होता है, न विशेषज्ञान होता है और न विशेष विरति होती है उस काल में समस्त भेदों का अपलाप कर भाव्यभावकभाव को प्राप्त चेतन-अचेतन पदार्थों का समानाधिकरण रूप से अनुभव होने लगता है। उस अनुभव के प्रभाव से आत्मा में ऐसा विकल्प उठता है कि मैं क्रोध हूँ। इस विकल्प से यह आत्मा भ्रान्ति के द्वारा 'मैं क्रोध हूँ' इस प्रकार चैतन्यपरिणाम के द्वारा परिणमन करता हुआ उस विकारी चैतन्यपरिणामरूप आत्मभाव का कर्ता होता है। इसी तरह 'क्रोध' पद को परिवर्तित कर मान, माया, लोभ, मोह, राग, द्वेष, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रवण, चक्षु, प्राण, रसना और स्पर्शन इन सोलह सूत्रों की व्याख्या कर लेनी चाहिये। इसी प्रक्रिया से अन्य तत्त्व भी ऊहापोह करने के योग्य हैं।
उपयोग आत्मा का गुण है, और गुण गुणी से अभिन्न रहता है, अत: यहाँ उपयोगशब्द से आत्मा का बोध होता है। आत्मा का अज्ञानरूप विकारी-परिणमन सामान्य से यद्यपि एक प्रकार का है तो भी विशेष की अपेक्षा वह मिथ्यादर्शन, अज्ञान और अविरति के भेद से तीन प्रकार का हो रहा है। यह मिथ्यादर्शनादि रूप परिणमन आत्मा का निज का स्वभाव रूप परिणमन नहीं है, किन्तु पर के निमित्त से जायमान होने के कारण विकारी परिणमन है। इस विकारी परिणमन के प्रभाव से आत्मा को पर तथा आत्मा का भेदज्ञान नहीं हो पाता है। इस भेदज्ञान के अभाव में वह भाव्यभावकभाव को प्राप्त जो चेतन-अचेतन पदार्थ हैं उनका एकरूप से अर्थात् चेतनरूप से ही अनुभव करता है। क्रोधादिरूप परिणत आत्मा भाव्य है और उसमें कारणभूत भावक्रोध भावक है, यहाँ भाव्य अर्थात् आत्मा तो चेतन है और भावक अर्थात् भावक्रोध अचेतन के निमित्त से उत्पन्न होने के कारण अचेतन है। आत्मा में जो क्रोधरूप परिणति हो रही है उसमें आत्मा तो चेतन है और क्रोध अचेतन है। इस तरह इन दोनों में स्पष्ट भेद है। परन्तु अज्ञानी आत्मा को इनमें भेद का अनुभव नहीं होता और उसके न होने से वह ऐसा विकल्प करने लगता है कि 'मैं क्रोध हैं। इस विकल्प की महिमा से आत्मा अपने विकारी परिणाम का कर्ता होता है और वह विकारी परिणाम उसका कर्म होता है। इस तरह सिद्ध होता है कि अज्ञान से ही कर्म का प्रादुर्भाव है।।९४।।
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