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________________ कर्तृ-कर्माधिकार १३५ ही अत्यन्त भिन्न है। किन्तु इसके निमित्त से जो अनुभव होता है वह अनुभव आत्मा से अभिन्न है और पुद्गल से नित्य ही अत्यन्त भिन्न है। अतएव जिनके सम्यग्ज्ञान है वे इस अनुभव और राग, द्वेषादि का पृथक्-पृथक् स्वरूप जानते हैं। इस सम्यग्ज्ञान से अनुभव और रागादिक में नानात्व का विवेक हो जाता है अर्थात् दोनों जुदे-जुदे हैं, यह ज्ञान हो जाता है। इस नानात्व के विवेक से, जिस प्रकार आत्मा शीतोष्णरूप परिणमन करने में अशक्य है उसी तरह राग, द्वेष, सुख, दुःखरूप अज्ञानमय भाव से भी परिणमन करने में अशक्य है। अत: तद्रूप किञ्चिन्मात्र का परिणमन न करता हुआ यह आत्मा अपने ज्ञान के ज्ञानपन को प्रकट करता है और स्वयं ज्ञानमय होता हुआ ऐसी श्रद्धा करता है कि 'यह जो मैं हूँ सो जानता ही हूँ रागादिरूप परिणमन तो पुद्गल करता है' इत्यादि विधि से वह आत्मा अज्ञानस्वरूप जो रागादिक कर्म हैं उन सभी का अकर्ता होता है। रागादिरूप अवस्था और रागादिरूप अवस्था का अनुभव ये दो ज्ञान में भिन्न-भिन्न वस्तुएँ हैं। यद्यपि दोनों ही आत्मा में भासमान हो रही हैं फिर भी रागादिरूप अवस्था पौद्गलिक कर्म के निमित्त से उत्पद्यमान होने के कारण आत्मा की न कही जाकर पुद्गल की कही जाती है। जैसे शीतोष्णरूप अवस्था का पुद्गल के साथ अभेदभाव है। ऐसे ही रागादि अवस्था का भी निमित्त कारण की प्रधानता में पुद्गल से अभेदभाव है। परन्तु रागादिरूप अवस्था का जो अनुभव-ज्ञान होता है वह पर से जायमान नहीं है क्योंकि ज्ञान, आत्मा का गुण है, उसका आविर्भाव आत्मा से ही होता है पर से नहीं, अत: ज्ञान आत्मा से अभिन्न और पुद्गल से अत्यन्त भिन्न है। अज्ञानी जीव को इस प्रकार का भेदज्ञान नहीं होता, इसलिये वह रागादिरूप अज्ञानमय भाव से परिणमन करता हुआ अपने ज्ञान को अज्ञानरूप प्रकट करता है और उस अज्ञान की महिमा से अपने आपको रागादि कर्मों का कर्ता बताता है, परन्तु ज्ञानी जीव को उक्त भेद-ज्ञान हो जाता है। इसलिये वह रागादिरूप अज्ञानमय भाव से कुछ भी परिणमन नहीं करता हुआ अपने ज्ञान को ज्ञानरूप ही प्रकट करता है और उस ज्ञान की महिमा से वह समझता है कि मेरा काम तो केवल जानना है, रागादिरूप परिणमन करना नहीं, रागादिरूप परिणमन करना पुद्गल का काम है। इस तरह की श्रद्धा से वह रागादि कर्मों का कर्ता नहीं होता है।।९३।। आगे अज्ञान से किस प्रकार कर्म होते हैं, यही दिखाते हैंतिविहो एसुवओगो अप्पवियप्पं करेइ कोहो हं । कत्ता तस्सुवओगस्स होइ सो अत्तभावस्स ।।९४।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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