SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 205
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३४ समयसार भी परिणमन करने में असमर्थ है। परन्तु ऊपर कहे हुए एकत्व के अध्यास से यह आत्मा राग, द्वेष, सुख, दुःखादिरूप अज्ञानमय भाव से परिणमन करता हुआ अपने ज्ञान की अज्ञानता को प्रकट करता है तथा स्वयं अज्ञानमय होता है और 'यह जो मैं हूँ सो राग करता हूँ' इत्यादि विधि से ज्ञान से विरुद्ध रागादि कर्म का कर्ता प्रतिभासमान होता है। तत्त्वदृष्टि से देखा जावे तो पुद्गल कर्म के विपाक से आत्मा का जो चारित्रगुण है वह रागादि रूप परिणम जाता है उस काल में आत्मा का जो ज्ञानात्मक उपयोग है वह इन भावों को अपने में देखता है। ज्ञान की ऐसी स्वच्छता है कि जो वस्तु उसके समक्ष आती है उसे जानता है। यदि केवल जानना रहता तो आत्मा की कुछ हानि न थी, परन्तु उनरूप अपने को मानने लगता है। वास्तव में ज्ञान और ज्ञेय एकरूप कदापि नहीं होते, परन्तु अज्ञान में यह बात नहीं बनती। यही कारण है कि अज्ञानी जीव रज्जु में सर्पभ्रान्ति के द्वारा भयभीत होकर उस स्थान से पलायमान होने की चेष्टा करते हैं। यद्यपि वस्तुस्वरूप कभी नहीं बदलता, परन्तु अज्ञान में भासमान होता है। इसी से अज्ञानी जीव सर्वदा दःखी और असंतुष्ट रूप रहता है। अत: सिद्ध हआ कि अज्ञान से ही कर्मों का आविर्भाव होता है, ज्ञान से नहीं।।९२।। आगे ज्ञान से कर्म नहीं उत्पन्न होता, यह कहते हैंपरमप्पाणमकुव्वं अप्पाणं पि य परं अकुव्वंतो । सो णाणमओ जीवो कम्माणमकारओ होदि ।।९३।। अर्थ- जो जीव अपनी आत्मा को पररूप नहीं करता है और परपदार्थ को अपने आत्मस्वरूप नहीं करता है वही जीव ज्ञानमय है तथा कर्मों का अकर्ता होता है। विशेषार्थ- निश्चय से यह आत्मा ज्ञान से पर और आत्मा के भेद को जानता है। ऐसा भेदज्ञान जिस आत्मा में हो जाता है वह पर को आत्मरूप नहीं करता और आत्मा को पररूप नहीं करता। ऐसी व्यवस्था के सद्भाव में स्वयमेव ज्ञानी हुआ कर्मों का कर्ता नहीं होता है। यही दिखाते हैं जैसे शीतोष्ण पुद्गल की अवस्थाविशेष है और यह अवस्था शीतोष्णरूप ज्ञान के सम्पादन में समर्थ है, किन्तु इसकी अभिन्नता पुद्गल के साथ ही है। ऐसे ही राग, द्वेष, सुख, दुःख भी पुद्गल की अवस्थाएँ हैं क्योंकि रागद्वेषात्मक जो मोहकर्म है उसके उदय से ही इनका आविर्भाव होता है। यह रागादिरूप अवस्था रागादि के ज्ञान कराने में समर्थ है फिर भी पुद्गल से अभिन्न है और आत्मा से तो नित्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy