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कर्तृ-कर्माधिकार
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रखता है, उस योग्यता से ही वह ध्यानरूप परिणमन करता हुआ ध्यान का कर्ता कहलाता है उधर सर्पादिक के विष में दूर होने की योग्यता स्वयं है । अत: जब मन्त्रसाधक और सर्पादिक के विष, दोनों की अपनी-अपनी योग्यताओं को लक्ष्य में रखकर कथन होता है तब कहा जाता है कि मन्त्रसाधक स्वयं ध्यानरूप परिणमन करता है और सर्पादिक का विष स्वयं दूर होता है । परन्तु जब उनकी उस योग्यता को गौणकर बाह्य निमित्त की प्रधानता से कथन होता है तब कहा जाता है कि अमुक मन्त्रसाधक के ध्यान के प्रसाद से सर्प का विष दूर हो गया, अमुक व्यक्ति के वशीकरण मन्त्र से स्त्रियाँ विडम्बना को प्राप्त हो गईं तथा अमुक व्यक्ति की मन्त्रसाधना की महिमा से बन्धन खुल गये । यहाँ एक बात ध्यान में रखने की और है कि बहिरङ्ग निमित्त, साध्यभाव की अनुकूलता से ही निमित्तपन को प्राप्त होता है क्योंकि साध्यभाव की अनुकूलता के बिना केवल निमित्त से साध्य की सिद्धि नहीं होती।। ९१ ।।
अब यह बात कहते हैं कि अज्ञान से ही कर्म होते हैं
परमप्पाणं कुव्वं अप्पाणं पि य परं करिंतो सो। अण्णाणमओ जीवो कम्माणं कारगो होदि । । ९२ । । अर्थ- अज्ञानमय जीव पर को अपना और आप को पर करता हुआ कर्मों का कर्ता होता है।
विशेषार्थ - निश्चय से यह आत्मा अज्ञानभाव के द्वारा पर और आत्मा का भेदज्ञान नहीं कर सकता है और भेदज्ञान के अभाव में पर को तो अपना करता है और अपने को पररूप करता है, अतः स्वयं अज्ञानमय होता हुआ कर्मों का कर्ता प्रतिभासमान होता है । यहाँ 'प्रतिभाति' क्रिया देने का यह तात्पर्य है कि परमार्थ से कर्ता तो नहीं है किन्तु भासमान होता है । उसी को स्पष्ट रूप से दिखाते हैं— राग, द्वेष, सुख, दुःख आदि पुद्गलपरिणाम की अवस्थाएँ हैं और ये अवस्थाएँ 'मैं रागी हूँ', द्वेषी हूँ, सुखी हूँ, दुःखी हूँ, इस प्रकार के अनुभव कराने में समर्थ हैं परन्तु जैसे शीत, उष्ण पुद्गलपरिणाम की अवस्थाएँ हैं और वे शीत, उष्ण के अनुभव कराने में समर्थ हैं तथा पुद्गल से अभिन्न हैं वैसे ही ये राग, द्वेष, सुख, दुःखादि अवस्थाएँ भी पुद्गल से अभिन्न हैं और इन अवस्थाओं के निमित्त से जो अनुभव होता है वह अनुभव आत्मा से अभिन्न तथा पुद्गल से नित्य ही भिन्न है किन्तु इस अनुभव का और रागादिरूप अवस्था का अज्ञान से परस्पर भेदज्ञान न होने पर दोनों में एकत्व का अध्यास हो जाता है। जिस प्रकार आत्मा शीत, उष्णरूप परिणमन करने में असमर्थ है उसी प्रकार परमार्थ से अज्ञानमय राग, द्वेष, सुख, दुःखादिरूप
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