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________________ १३२ समयसार जं कुणइ भवमादा कत्ता सो होदि तस्स भावस्स। कम्मत्तं परिणमदे तरि सयं पुग्गलं दव्वं ।।९१।। अर्थ- आत्म-जिस भाव को करता है उसका भाव वह कर्ता होता है और उसके होने पर पुद्गलद्रव्य स्वयं कर्मरूप परिणम जाता है। विशेषार्थ- आत्मा स्वयं ही उस प्रकार के परिणमन से जिस भाव को करता है मन्त्रसाधक पुरुष की तरह वह उस भाव का कर्ता होता है और उस भाव के निमित्त होने पर पुद्गलद्रव्य स्वयं ही ज्ञानावरणादि रूप परिणमन को प्राप्त हो जाता है। यही दिखाते हैं- जिस प्रकार मन्त्र का साधनेवाला उस प्रकार के ध्यानभाव से स्वयं परिणमन करता हुआ ध्यान का कर्ता होता है और उस ध्यानभाव के सम्पूर्ण साध्यभाव की अनुकूलता के कारण निमित्तमात्र होने पर अन्य किसी-साधक कर्ता के बिना ही सर्पादिक के विष का प्रसार स्वयमेव दूर हो जाता है, स्त्रियाँ विडम्बना को प्राप्त हो जाती हैं तथा बन्धन ध्वस्त हो जाते हैं। उसी प्रकार यह आत्मा अज्ञान से मिथ्यादर्शनादि रूप स्वयं परिणमन करता हुआ मिथ्यादर्शनादिभाव का कर्ता होता है और उस मिथ्यादर्शनादिभाव के अपनी अनुकूलता के कारण निमित्तमात्र होने पर आत्मारूप कर्ता के बिना पुद्गलद्रव्य स्वयं ही मोहनीय आदि कर्मरूप परिणम जाता है। आत्मा में वैभाविक शक्ति होने के कारण मिथ्यादर्शनादिरूप परिणमन करने की योग्यता है। अत: अन्तरङ्ग में उस योग्यता से तथा बहिरङ्ग में पूर्वबद्ध मिथ्यात्व आदि द्रव्यकर्म के विपाक से इधर आत्मा मिथ्यादर्शनादि विभावरूप परिणमन करता है उधर पुद्गलद्रव्य में भी वैभाविक शक्ति होने के कारण कर्मरूप परिणमन करने की योग्यता है। अत: अन्तरङ्ग में उस योग्यता से तथा बहिरङ्ग में जीव के मिथ्यादर्शनादि विभावभाव के निमित्त से पुद्गलद्रव्य ज्ञानावरणादि कर्मरूप परिणमन करता है। यहाँ आत्मा और पुद्गल दोनों में विद्यमान वैभाविकशक्ति से जायमान योग्यता को लक्ष्य में रखकर कथन करते हुए कहा गया है कि आत्मा मिथ्यादर्शनादि विभावरूप परिणमन स्वयं करता है और पुद्गलद्रव्य ज्ञानावरणादि कर्मरूप परिणमन स्वयं करता है। जब आत्मा और पुद्गल की उस योग्यता को गौणकर बहिरङ्ग निमित्त की प्रधानता से कथन किया जाता है तब तहा जाता है कि पूर्वबद्ध द्रव्यकर्मरूप पुद्गल के निमित्त से आत्मा मिथ्यादर्शनादि विभावरूप परिणमन करता है और आत्मा के मिथ्यादर्शनादि विभावरूप परिणमन के निमित्त से पुद्गलद्रव्य ज्ञानावरणादि कर्मरूप परिणमन करता है। यहाँ मन्त्रसाधक के दृष्टान्त से भी यही बात प्रकट की गई है, क्योंकि मन्त्र सिद्ध करनेवाला पुरुष ध्यानविषयक योग्यता को स्वयं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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