________________
कर्तृकर्माधिकार
१३१
तरह का उसका परिणाम हो जाता है। इसी प्रकार आत्मा का जो उपयोग है वह स्वच्छ है परन्तु जब उसके साथ मिथ्यादर्शनादि उपाधि का सम्बन्ध रहता है तब वह मिथ्यादर्शनादि रूप परिणाम को प्राप्त हो जाता है ।। ८९ ।।
आगे आत्मा में तीन प्रकार के परिणामों का कर्तृत्व है, यही दिखाते हैं
एएसु य उवओगो तिविहो सुद्धो णिरंजणो भावो ।
जं सो करेदि भावं उवओगो तस्स सो कत्ता ।। ९० ।।
अर्थ- यद्यपि उपयोग आत्मा का शुद्ध-निरञ्जन भाव है तो भी इन मिथ्यादर्शन, अज्ञान और अविरति रूप निमित्तों के सद्भाव में मिथ्यादर्शन, अज्ञान और अविरति के भेद से तीन प्रकार का हो जाता है। वह उपयोग जिस भाव को करता है उसका वह कर्ता होता है।
विशेषार्थ - यद्यपि यह उपयोग परमार्थ से शुद्ध - निरञ्जन - अनादिनिधन - वस्तु जो आत्मा सो सर्वस्वभूत चैतन्यमात्र भाव के कारण एक प्रकार का है तो भी अनादि-वस्त्वन्तरभूत अर्थात् अनादिकाल से साथ में लगे हुए पृथक् वस्तुस्वरूप मोहकर्म से युक्त होने के कारण आत्मा में जो मिथ्यादर्शन, अज्ञान और अविरतिभाव रूप तीन प्रकार के परिणामविकार प्रकट हो रहे हैं उनका निमित्त पाकर अशुद्ध, साञ्जन और अनेकता को प्राप्त होता हुआ तीन प्रकार का हो रहा है। यही तीन प्रकार का उपयोग स्वयं अज्ञानरूप परिणम कर कर्तृत्व को प्राप्त होता है और विकाररूप परिणम कर आत्मा के जिस-जिस भाव को करता है उस उस भाव का कर्ता होता है।
उपयोग आत्मा का गुण है और गुण, गुणी से पृथक् नहीं रहता, अत: उपयोग को कर्ता कहने से आत्मा में कर्तृत्व आ जाता है। पहले निमित्त की मुख्यता से यह कहा गया था कि आत्मा में जो मोह, राग, द्वेष आदि विकारी भाव हैं उनका कर्ता पुद्गलद्रव्य है। यहाँ उपादान की मुख्यता से कहा गया है कि इनका कर्ता आत्मा है क्योंकि ये मोह, राग, द्वेष आदि विकारी भाव परनिमित्त से जायमान आत्मा की ही अशुद्ध परिणतिरूप हैं । । ९० ।।
इस तरह जब आत्मा मिथ्यादर्शन, अज्ञान और अविरति इन तीन प्रकार के विकारी परिणामों का कर्ता होता है तब उनका निमित्त पाकर पुद्गलद्रव्य स्वयं कर्मभाव को प्राप्त हो जाता है, यही दिखाते हैं
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org