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________________ १३० समयसार चैतन्यपरिणाम के विकार हैं। तात्पर्य यह है कि मिथ्यात्वप्रकृति, मन-वचन-कायरूप द्रव्ययोग, अविरति में कारणभूत अप्रत्याख्यानावरणादि चारित्र-मोह की प्रकृतियाँ तथा ज्ञान को कुज्ञान बनानेवाली मिथ्यात्व आदि प्रकृतियाँ अथवा मतिज्ञानावरणादि ज्ञानावरण की प्रकृतियाँ ये सब अजीव हैं क्योंकि पौद्गलिककर्म हैं। और इन उपर्युक्त प्रकृतियों के विपाककाल में जायमान जो विपरीताभिनिवेश अथवा अतत्त्वश्रद्धानरूप श्रद्धागुण की विपरीतपरिणति, आत्मप्रदेशों में प्रकम्पन की शक्तिरूप भावयोग, अविरतिरूप चारित्रगण की विपरीतपरिणति तथा मतिज्ञानादिगुणों की अज्ञानरूप विरीतपरिणति है वह सब जीव हैं क्योंकि उपयोगस्वरूप होने से वे जीव की ही विशिष्ट परिणतियाँ हैं।।८८।। अब मिथ्यादर्शनादि भाव चैतन्यपरिणाम के विकार कैसे हैं? यही दिखाते हैं उवओगस्स अणाई परिणामा तिण्णि मोहजुत्तस्स । मिच्छत्तं अण्णाणं अविरदिभावो य णायव्वो ।।८९।। अर्थ- मोहयुक्त उपयोग के अनादि से तीन तरह के परिणाम होते हैं। वे परिणाम मिथ्यात्व, अज्ञान और अविरतिरूप जानने योग्य हैं।। विशेषार्थ- तात्त्विकदृष्टि से देखा जावे तो सर्व ही पदार्थ—स्वकीय-स्वकीय परिणामरूप परिणमने में समर्थ हैं। यह सब पदार्थों का वास्तविक स्वभाव-सामर्थ्य है, कोई स्वकीय परिणमन में उपादानरूप से किसी अन्य की अपेक्षा नहीं करता है। उपयोग में स्वभाव से समस्त वस्तुओं के आकार परिणमने की सामर्थ्य है। अतएव उसके साथ अनादिकाल से वस्त्वन्तरभूत जो मोह का सम्बन्ध है उसके निमित्त से मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और अविरतिरूप तीन तरह का उस उपयोग का विकार रूप परिणमन हो जाता है और यह बात अलीक नहीं, क्योंकि ऐसा होना देखा गया है- जैसे स्फटिकमणि स्वभावसे स्वच्छ है किन्तु निमित्त पाकर उसकी स्वच्छता विकृतरूप हो जाती है, यही दिखाते हैं स्फटिक की स्वच्छता अपने स्वरूप रूप परिणमन में सर्वदा सामर्थ्यशालिनी है। किन्तु जब उसके साथ नील-हरित-पीत-तमाल-कदली-काञ्चनपात्र की उपाधि का सम्बन्ध हो जाता है तब उसके तीन तरह के नील-हरित-पीतविकार रूप परिणमन हो जाते हैं, यह सबके दृष्टिगोचर कथा है। इसी तरह उपयोग का वस्त्वन्तरभूत मोह के साथ सम्बन्ध होने से मिथ्यादर्शन, अज्ञान और अविरतरूप तीन तरह का परिणाम विकार देखा जाता है। इसका आशय यह है कि जैसे स्फटिकमणि स्वभाव से स्वच्छ है, परन्तु उस स्फटिकमणि को जिस रङ्ग की डांक लगाई जाती है उसी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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