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सम्पादकीय
स्याद्वादाधिकार का हिन्दी-व्याख्यान स्वयं लिखकर जोड़ दिया है। वर्णीजी की भाषा अपनी एक शैली स्वयं रखती है, उसमें यद्यपि आधुनिक खड़ी बोली और संस्कृतबहुल शब्दों का आश्रय कम हैं तथापि उसमें माधुर्य है, आकर्षण है और हृदयगत भाव को प्रकट करने की अद्भुत क्षमता है। इसलिये परिमार्जन के नाम पर उसमें उतना ही परिमार्जन किया गया है जितना कि अत्यन्त आवश्यक दिखा। कहीं-कहीं कुछ उदाहरण एक से अधिक बार आ गये थे उन्हें अलग कर दिया। __इस ग्रन्थ का संपादन करते समय अन्तरङ्क में बड़ा आह्लाद था, ऐसा लगता था कि एक अपूर्व ग्रन्थ जनकल्याण के लिये सामने आ रहा है, इसलिये दिनभर संस्थाओं के कार्यों में व्यस्त रहने के बावजूद भी रात्रि के दो-दो बजे तक अथवा जब नींद खुल गई तभी यह कार्य होता रहा। ऐसा लगता था कि जैसे कोई अदृश्य शक्ति इस कार्य में मुझे शक्ति प्रदान कर रही है।
ग्रन्थ तैयार होने पर मुझे लगा कि इस ग्रन्थ का सम्बन्ध एक ऐसे उच्च संयमी एवं ख्याति प्राप्त विद्वान के साथ है जो समाज में जन-जन की श्रद्धा के भाजन थे और वर्तमान में विद्यमान नहीं हैं। 'जीवन-गाथा के' दोनों भागों का संपादनकर उनकी पाण्डुलिपियाँ उन्हें दिखाकर तथा अक्षरश: उन्हें सुनाकर अपने दायित्व से मुक्त हो गया था। पर यह संस्करण उनके अभाव में प्रकाशित हो रहा है, अत: चिन्तित था कि ग्रन्थ में कहीं कोई त्रुटि न रह जावे। फलत: मैंने इसे अन्य विद्वानों को भी दिखा लेना उचित समझा। श्री पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री और पं० दरबारीलालजी कोठिया की संमत्यनुसार संपादित पाण्डुलिपि श्रीमान् पं० जगन्मोहनलालजी शास्त्री कटनी के पास भेज दी। हर्ष की बात है कि उन्होंने पूज्य वर्णीजी द्वारा लिखित मूल प्रति तथा समयसार की अन्य प्रतियों को सामने रखकर अक्षरश: उसका अवलोकन किया तथा जहाँ सुधार आवश्यक समझा उसकी एक सूची बनाई और उसे लेकर सागर पधारे। यहाँ ५ दिन रहे तथा संपादित पाण्डुलिपि का पुन: वाचन कराकर ऊहापोहपूर्वक आवश्यक सुधारों को यथास्थान आयोजित कराया। मैं पण्डितजी की इस तल्लीनता से मन-ही-मन बड़ा प्रसन्न हो रहा था। इस तरह पण्डितजी के निरीक्षण के बाद पाण्डुलिपि की पूर्णता के विषय में मैं आश्वस्त हो सका। पण्डित जगन्मोहनलालजी एक-एक शब्द-विन्यास को बड़ी बारीकी से परखते हैं। समयसार का अनुभव भी आपका उत्तम है। इस कार्य में उन्होंने जो सहयोग प्रदान किया उसके लिये मैं अत्यन्त आभारी हूँ।
___ संपादन के पूर्व इसके प्रकाशन की जो व्यवस्था निश्चित हुई थी वह विघटित हो गई, इसलिए नवीन व्यवस्था के लिए वर्णी-ग्रन्थमाला को प्रयास करना पड़ा
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