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समयसार उन्होंने ४-६ प्रतियाँ तैयार कराईं और विद्वानों के पास भेजीं। फिर भी उसके प्रकाशन का सुयोग नहीं बना। पिछले वर्षों में ईसरी में होनेवाले मन्दिरप्रतिष्ठा के अवसर पर श्री पं० कैलाशचन्द्रजी, पं० जगन्मोहनलालजी तथा खुशालचन्द्रजी के साथ मैं भी वहाँ गया था। प्रसन्नता की बात है कि वर्णी ग्रन्थमाला के मंत्री डॉ० दरबारीलालजी कोठियाने पं० कैलाशचन्द्रजी द्वारा मूलकापी ग्रन्थमाला से प्रकाशित करने के विचार से वाराणसी मंगवा ली और वह उनकी तथा पं० जगन्मोहनलालजी की सलाह से संपादनार्थ मुझे भेज दी।
वीजी द्वारा लिखित समयसार को देखने की उत्सुकता बहुत पहले से हृदय में विद्यमान थी, अत: इसका अध्ययन शुरू कर दिया। देखने पर ऐसा लगा कि यह टीका एक प्रवचन के रूप में है, जिसमें उन्होंने अधिकांश अमृतचन्द्रसूरि की आत्मख्यातिटीका, कहीं-कहीं जयसेनाचार्यकृत तात्पर्यवृत्ति और अनेक शास्त्रों के अध्ययन से प्राप्त अपने जिनागम-सम्बन्धी अनभव का आश्रय लिया है। समयसार के गूढ़ भाव को उन्होंने बड़ी सरलता से अनेक दृष्टान्त देकर स्पष्ट किया है। साथ ही अमृतचन्द्रसूरि द्वारा निर्मित कलश-काव्यों का भी कहीं अर्थरूप में और कहीं भावार्थरूप में व्याख्यान किया है। यह प्रवचन उन्होंने नातिविस्तर और नातिसंक्षेप की पद्धति से लिखा है। इस प्रवचन के आधार पर श्रोता श्रीकुन्दकुन्दस्वामी और अमृतचन्द्रसूरि द्वारा प्रतिपादित तत्त्व को सरलता से ग्रहण कर सकता है। कितने ही प्रवचन मूल लक्ष्य से भटककर प्रवाह में अन्यत्र बह जाते हैं परन्तु पूज्य वर्णीजी का यह प्रवचन मूलानुगामी है।
बाद में इसे संपादित करने का कार्य शुरू किया। संपादन करते समय समयसार की दोनों संस्कृत-टीकाओं तथा पं० जयचन्द्रजी कृत हिन्दी टीका को सामने रखा गया तथा पूज्य वर्णीजी ने जो लिखा है उसका उनसे मिलान किया गया। उन्होंने अपने इस प्रवचन में अमृतचन्द्रसूरि के कलशोंपर व्याख्यान तो किया था-कहीं अर्थ के रूप में और कहीं भावार्थ के रूप में, परन्तु मूल श्लोकों को उद्धृत नहीं किया था। आज समयसार के अध्येताओं में कलशों के स्वाध्याय का भी प्रचार बढ़ रहा है। इसके ऊपर स्वतन्त्र टीकाएँ भी प्रकाशित हुई हैं पर बीचबीच में समयसार की गाथाओं का संदर्भ टूट जाने से वे अपूर्ण-सी दिखती हैं। अत: मैंने कलशों के मूल श्लोक भी तत् तत् प्रकरणों में उद्धृत कर दिये तथा जहाँ जैसा आवश्यक दिखा उसके अर्थ और भावार्थ को स्पष्ट कर दिया। वर्णीजी के द्वारा लिखित प्रति में अन्त के स्याद्वादाधिकार के प्रवचन के पृष्ठ नहीं मिले। ये पृष्ठ कहीं गुम गये या लिखे ही नहीं गये, इसका निर्णय नहीं हो सका। ग्रन्थ अपूर्ण न रहे, इस भावना से मैंने श्रीजयचन्द्रजी की हिन्दी-टीका के आधार पर
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