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________________ १२६ समयसार जह्मा दु अत्तभावं पुग्गलभावं च दो वि कुव्वंति। तेण दु मिच्छादिट्ठी दोकिरियावादिणो हुंति।।८६।। अर्थ-जिस कारण जीव आत्मभाव तथा पुद्गलभाव दोनों को करते हैं, इसलिये दो-क्रियावादी लोग मिथ्यादृष्टि होते हैं। विशेषार्थ- क्योंकि दो-क्रियावादी अर्थात् दो क्रियाओं का कर्ता एक होता है, ऐसा कथन करने वाले लोग आत्मा को आत्मपरिणाम और पुद्गलपरिणाम इन दोनों का करनेवाला मानते हैं, इसलिये वे मिथ्यादृष्टि हैं, यह सिद्धान्त है। यह कदापि नहीं हो सकता कि एकद्रव्य के द्वारा दो द्रव्यों के परिणाम हो जावें। जैसे कलाल जब घट बनाता है तब जिस प्रकार का घट बनना है उसके अनुकूल ही अपने व्यापार व परिणाम का कर्ता होता है और उस कुलाल का वह परिणाम कुलाल से अभिन्न होता है तथा उसकी परिणति रूप जो क्रिया है वह भी उससे भिन्न नहीं है। उस क्रिया से कुलाल घट को करता हुआ प्रतिभासित होता है, किन्तु ऐसा प्रतिभासित नहीं होता कि कुलाल घट का कर्ता है। भले ही वह कुलाल 'मैं घट बनाता हूँ' इस प्रकार के अहंकार से भरा हो और अपने व्यापार के अनुरूप मिट्टी की घटरूप परिणति को कर रहा हो, परन्तु मिट्टी में जो घटरूप परिणाम हो रहा है वह यथार्थ में मिट्टी से अभिन्न है तथा मिट्टी से अभिन्न परणितिमात्र क्रिया के द्वारा क्रियमाण है। तात्पर्य यह हुआ कि परमार्थ से घट का कर्ता कलाल नहीं है किन्तु मिट्टी है, कुलाल तो अपने हस्तपादादिक के व्यापार का ही कर्ता है। इसी प्रकार ‘आत्मा पुद्गलकर्म का कर्ता है' यहाँ परमार्थ से विचार किया जावे तो आत्मा आत्मपरिणाम का ही कर्ता है क्योंकि आत्मा अज्ञानवश पुद्गलपरिणाम के अनुकूल जिस व्यापार को करता है वह आत्मा से अभिन्न है और उस परिणति के होने में जो आत्मा की परिणतिमात्र क्रिया हुई उससे भी आत्मा अभिन्न है। इस प्रकार आत्मा ज्ञानावरणादि कर्मों के अनुकूल आत्मपरिणाम को करता हुआ प्रतिभासित होता है। किन्तु ऐसा प्रतिभासित नहीं होता कि आत्मा पुद्गलपरिणाम का कर्ता है, भले ही वह “मैं पुद्गलपरिणाम को कर रहा हूँ' इस प्रकार के अहंकार से भरा हो तथा अपने परिणाम के अनुकूल पुद्गलपरिणाम को कर रहा हो, क्योंकि उसका वह व्यापार पुद्गल से अभिन्न है और जिस परिणतिमात्र क्रिया से वह व्यापार किया जा रहा है वह भी पुद्गल से अभिन्न है। तात्पर्य यह हुआ कि पुद्गलपरिणाम का कर्ता पुद्गल है, आत्मा नहीं, आत्मा तो केवल अपने परिणाम का कर्ता है। इस तरह जब आत्मा को आत्मपरिणाम का और पुद्गल को पुद्गलपरिणाम का ही कर्ता मान लिया तब एक द्रव्य में एक ही क्रिया हुई, दो क्रियाएँ नहीं हुईं। परन्तु इसके विपरीत जब Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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