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कर्तृ-कर्माधिकार
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यह माना जाता है कि आत्मा, आत्मपरिणाम और पुद्गलपरिणाम इन दोनों का कर्ता है तब द्विक्रियावादियों का मिथ्या सिद्धान्त आता है।।८६।।
इसी अभिप्राय को श्रीअमृतचन्द्राचार्य निम्नलिखित कलशों में प्रकट करते हैं
आर्याछन्द यः परिणमति स कर्ता यः परिणामो भवेत्तु तत्कर्म।
या परिणतिः क्रिया सा त्रयमपि भिन्नं न वस्तुतया।।५१।। अर्थ- जो परिणमन करता है वही कर्ता है, जो परिणाम है वह कर्म है और जो परिणति है वह क्रिया है, ये तीनों वास्तव में भिन्न नहीं हैं, अर्थात् सामान्यदृष्टि से विचार किया जाये तब तीनों एक ही वस्तु हैं। इनमें भिन्नता नहीं, परन्तु विशेषदृष्टि से परस्पर में भिन्नता है।
एक: परिणमति सदा परिणामो जायते सदैकस्य।
एकस्य परिणतिः स्यादनेकमप्येकमेव यतः ।। ५२ ।। अर्थ- वस्तु सदा एकाकी परिणमन करती है, जो परिणाम होता है वह सदा एक का ही होता है, और जो परिणति है वह भी सदा एक की ही होती है क्योंकि वस्तु अनेकरूप होकर भी परमार्थ से एक ही है।।५२।।
नोभौ परिणमतः खलु परिणामों नोभयोः प्रजायेत।
उभयोर्न परिणतिः स्याद्यदनेकमनेकमेव सदा।।५३ ।। अर्थ- निश्चय से दो द्रव्य एक रूप परिणमन नहीं करते, दो द्रव्यों का एकरूप परिणाम नहीं होता और दो द्रव्यों की एक परिणति नहीं होती, क्योंकि जो अनेक हैं वे सदा अनेक ही रहते हैं।।३।।
नैकस्य हि कर्तारौ द्वौ स्तो द्वे कर्मणी न चैकस्य।
नैकस्य च क्रिये द्वे एकमनेकं यतो न स्यात्।।५४।। अर्थ-एक कर्म के दो कर्ता नहीं होते, एक कर्ता के दो कर्म नहीं होते और एक द्रव्य की दो क्रियाएँ नहीं होती, क्योंकि जो एक है वह अनेक नहीं हो सकता।
शार्दूलविक्रीडितछन्द आसंसारत एव धावति परं कुर्वेऽहमित्युच्चकै
१र्वारं ननु मोहिनामिह महाहंकाररूपं तमः।
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