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कर्तृ-कर्माधिकार
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अर्थ- यदि आत्मा इस पुद्गलकर्म को करता है और उसी पुद्गलकर्म को भोगता है तो वह दो क्रियाओं से अभिन्न ठहरता है सो यह जिनेन्द्रदेव को अस्वीकृत है।
विशेषार्थ- इस लोक में जितनी भी क्रियाएँ हैं वे सब परिणामलक्षणवाली होने के कारण परिणाम से भिन्न नहीं हैं और क्योंकि परिणाम और परिणामी अभिन्न वस्तुएँ हैं अत: परिणाम परिणामी से भिन्न नहीं है। इस तरह जो भी क्रिया होती है वह सब क्रियावान् से भिन्न नहीं होती। अतएव वस्तुस्थिति के अनुसार क्रिया
और कर्त्ता में अभिन्नता सिद्ध होती है। इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि जैसे व्याप्यव्यापकभाव से जीव अपने परिणाम को करता है और भाव्यभावकभाव से उसका अनुभवन करता है। यदि ऐसे ही जीव व्याप्यव्यापकभाव से पद्गलकर्म को भी करने लगे और भाव्यभावकभाव से उसी का अनुभव करने लग जाय तो स्व
और पर में रहनेवाली दो क्रियाओं में अभेद का प्रसङ्ग आ जावेगा और उस स्थिति में स्व तथा पर के बीच परस्पर का भेद समाप्त हो जाने से एक आत्मा अनेकरूप हो जायगा तथा एक आत्मा का अनेकरूप से अनुभव करनेवाला आत्मा मिथ्यादृष्टि हो जावेगा, सो यह सर्वज्ञ भगवान् को अभिमत नहीं है।
यहाँ चर्चा जीव और पुद्गल दो द्रव्यों की है। जीव चेतनद्रव्य है और पुद्गल जड़ द्रव्य है। दोनों द्रव्यों की क्रियाएँ वस्तुमर्यादा के अनुसार भिन्न-भिन्न हैं अर्थात् जीव की क्रिया जीव में होती है और पुद्गल की क्रिया पुद्गल में होती है। इसी सिद्धान्त के अनुसार जीव जीवपरिणामों का कर्ता है और जीवपरिणामों का ही भोक्ता है। इसी तरह पुद्गल पुद्गलपरिणामों का कर्ता है और पुद्गलपरिणामों का ही भोक्ता है। इस वस्तुस्थिति का उल्लङ्घन कर व्यवहारनय जीव को पुद्गल कर्मों का कर्ता और भोक्ता बतलाता है। सो इस निरूपण में जीव में दो क्रियाओं का समावेश हो जायगा—एक जीव की अपनी क्रिया का तथा दूसरी पुद्गल की क्रिया का। और क्रिया का क्रियावान् से अभेद होता है। इसलिए जीव का उपर्युक्त दोनों क्रियाओं के साथ अभेद होने से जिस प्रकार उसमें जीवत्व रहता है उसी प्रकार पुद्गलत्व भी रहने लग जायगा। इसलिये जीवद्रव्य जो पहले जीवत्व की अपेक्षा एकरूप था अब वह पुद्गल का भी कर्ता मान लेने पर पुद्गलरूप होने के कारण अनेकरूप हो जायगा और इस विपरीत तत्त्वव्यवस्था को माननेवाला मिथ्यादृष्टि हो जायगा। यही कारण है कि सर्वज्ञदेव ने इस सिद्धान्त को अवमत (अस्वीकृत) किया है।।८५।।
आगे दो क्रियावादी किस तरह मिथ्यादृष्टि होता है, इसी को गाथा द्वारा स्पष्ट करते हैं
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