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है। इसके न होने से केवल जीव ही स्वयं अन्तर्व्यापक भाव से आदि, मध्य और अन्त अवस्थाओं में ससंसार और असंसार अवस्थाओं को व्याप्त कर कभी संसार अवस्थारूप आत्मा को करता है और कभी असंसार अवस्थारूप आत्मा को करता है। इस तरह इन दो अवस्थाओं को करता हुआ प्रतिभासमान होता है । इसी तरह यही आत्मा भाव्यभावकभाव के अभाव से, क्योंकि परभाव का पर के द्वारा अनुभवन होना अशक्य है अतः ससंसार और नि: संसार अवस्थारूप आत्मा का अनुभवन करता हुआ एक आत्मा का ही अनुभव करनेवाला भासमान होता है, अन्य का अनुभवन करनेवाला नहीं । । ८३ ।।
अब आगे व्यवहार को दिखलाते हैं
समयसार
ववहारस्स दु आदा पुग्गलकम्मं करेदि णेयविहं ।
तं चेव पुणो वेयइ पुग्गलकम्मं अणेयविहं ॥ ८४ ॥ अर्थ- व्यवहारनय का यह मत है कि आत्मा अनेक प्रकार के पुद्गलकर्म को करता है और फिर उसी अनेक प्रकार के पुद्गलकर्म को भोगता है ।
विशेषार्थ - जैसे अन्तर्व्याप्यव्यापकभाव से मिट्टी के द्वारा कलश किया जाता है और भाव्यभावकभाव से मृत्तिका के द्वारा ही अनुभवन किया जाता है। ऐसी व्यवस्था होने पर भी बाह्य व्याप्यव्यापकभाव से कलश की उत्पत्ति के अनुकूल व्यापार को करनेवाला और कलश धृततोयोपयोग से जायमान तृप्ति को भाव्यभावकभाव से अनुभवन करनेवाला जो कुलाल है वह कलश को करता है और उसका अनुभवन भी करता है। इस प्रकार लोगों का अनादि रूढ व्यवहार चला आ रहा है। ऐसे ही अन्तर्व्याप्यव्यापकभाव से पुद्गलद्रव्य के द्वारा ज्ञानावरणादि कर्म किये जाने पर तथा भाव्यभावकभाव से अनुभूयमान होने पर भी बाह्य व्याप्यव्यापकभाव के द्वारा अज्ञानभाव से पुद्गलकर्म की उत्पत्ति के अनुकूल स्वकीय रागादिक परिणामों को करनेवाला और पुद्गलकर्म के विपाक से संपादित तथा विषय के सान्निध्य से होनेवाली सुख-दुःखात्मक परिणति को भाव्यभावकभाव के द्वारा अनुभवन करनेवाला जो जीव है वह पुद्गलकर्म को करता है और भोगता है, ऐसा अज्ञानी जीवों का आसंसार प्रसिद्ध व्यवहार चला आ रहा है । । ८४।।
अब इस व्यवहार को दूषित करते हैं
दि पुग्गलकम्ममिणं कुव्वदि तं चेव वेदयदि आदा । दो - किरियावदिरित्तो पसज्जए सो जिणावमदं ।। ८५ ।।
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