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________________ कर्तृ-कर्माधिकार १२३ निमित्त बनने में आपत्ति नहीं है । अतः पुद्गल के कर्मरूप परिणमन में जीव का रागादिभाव निमित्तकारण है और जीव के रागादिभावरूप परिणमन में पौगलिककर्म निमित्तकारण हैं। उपादानोपादेयभाव एकद्रव्य में बनता है और निमित्त-नैमित्तिकभाव दो द्रव्यों में बनता है। यहाँ प्रकरण कर्तृ-कर्मभाव का है। परमार्थ से कर्तृ-कर्म उन्हीं में बनता है जिनमें व्याप्यव्यापकभाव होता है और चूँकि व्याप्यव्यापकभाव एक ही द्रव्य में हो सकता है। अतः रागादि भावों का कर्ता जीव ही है, पौगलिक कर्म नहीं, और ज्ञानावरणादि कर्मों का कर्ता पुद्गल ही है, जीव नहीं है ।। ८०,८१,८२।। यही दिखाते हैं णिच्छयणयस्स एवं आदा अप्पाणमेव हि करेदि । वेदयदि पुणो तं चेव जाण अत्ता दु अत्ताणं ।। ८३ ।। अर्थ- निश्चयनय का यह सिद्धान्त है कि आत्मा आत्मा को ही करता है और आत्मा-आत्मा को ही भोगता है, यह तू जान । विशेषार्थ - जैसे वायु के संचरण का निमित्त पाकर समुद्र की उत्तरङ्ग अवस्था हो जाती है अर्थात् जब वायु का वेग होता है तब समुद्र में कल्लोलें उठने लगती हैं और जब वायु का वेग मन्द हो जाता है तब समुद्र की निस्तरङ्ग अवस्था हो जाती है। अर्थात् वायु के वेग के अभाव में कल्लोलों का उठना स्वयमेव शान्त हो जाता है। इस तरह वायु के संचरण और असंचरण रूप निमित्त को पाकर यद्यपि समुद्र की सतरङ्ग और निस्तरङ्ग अवस्था हो जाती है तो भी वायु और समुद्र का परस्पर में व्याप्यव्यापकभाव नहीं है और व्याप्यव्यापकभाव के अभाव से कर्तृ-कर्मभाव की भी असिद्धि है । उस असिद्धि के होने पर समुद्र स्वयं अन्तर्व्यापक होकर आदि, मध्य और अन्त अवस्थाओं में उत्तरङ्ग तथा निस्तरङ्ग अवस्थाओं को व्याप्तकर कभी उत्तरङ्गरूप आत्मा [ अपने] को करता है और कभी निस्तरङ्गरूप आत्मा [अपने] को करता है। इसी तरह आत्मा केवल एक अपने आत्मा को करता हुआ प्रतिभासमान होता है, अन्य को करता हुआ नहीं। जैसे वही समुद्र भाव्यभावकभाव के अभाव से परभाव का परके द्वारा अनुभव न होना अशक्य है, इसी से उत्तरङ्ग और निस्तरङ्गरूप अपने आत्मा का अनुभवन करता हुआ केवल स्वीय आत्मा का अनुभव करता हुआ प्रतिभासमान होता है, अन्य को आपरूप कदापि अनुभव नहीं करता है । ऐसे ही जब पुद्गलकर्म का विपाक होता है तब आत्मा की संसार अवस्था होती है और पुद्गलकर्म के विपाक के अभाव में असंसार - अवस्था होती है। ऐसा होनेपर भी पुद्गल कर्म और जीव का व्याप्य-व्यापकभाव नहीं है । इसीसे इन दोनों का परस्पर में कर्तृ- कर्मभाव भी नहीं For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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