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समयसार
जीवकृतं परिणामं निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये । स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र पुद्गलाः कर्मभावेन ।। परिणममानस्य चितश्चिदात्मकैः स्वयमपि स्वकै वैः।
भवति हि निमित्तमात्रं पौद्गलिकं कर्म तस्यापि ।। अर्थात् जीवकृत रागादिपरिणाम को निमित्तमात्र प्राप्तकर अन्यपुद्गलस्वयमेव कर्मरूप से परिणमन करते हैं और अपने चिदात्मक रागादिभावों से परिणमन करनेवाले जीव को पौद्गलिक कर्म निमित्तमात्र होता है।
क्योंकि जीव और पद्गल का परस्पर में निमित्त-नैमित्तिकभाव सम्बन्ध है। इसलिये मृत्तिकाकलश के समान स्वकीय भाव के द्वारा स्वकीयभाव के करने से जीवनामक जो पदार्थ है वह अपने रागादिक भावों का कर्ता कदाचित् हो सकता है, किन्तु मृत्तिका-वसन की तरह स्वकीय भाव के द्वारा परभाव का करना असम्भव है, अतएव पुद्गलभावों का कर्ता कभी भी नहीं हो सकता, ऐसा निश्चय सिद्धान्त है। इसका तात्पर्य यह है कि मृत्तिका जिस तरह वसनरूप पर्याय का कर्ता नहीं, इसी तरह जीव भी पद्गलपरिणामों का कर्ता कदाचित भी नहीं हो सकता है। इससे यह सिद्ध हुआ कि जीव का अपने परिणामों के साथ ही कर्तृ-कर्मभाव और भोक्तृ-भोग्यभाव है।
__कार्योत्पत्ति की प्रक्रिया में उपादानकारण और निमित्तकारण ये दो कारण होते हैं। उपादान कारण वह है जो स्वयं कार्यरूप परिणत होता है। जैसे घट का उपादान कारण मृत्तिका। और निमित्त कारण वह है जो उपादान की कार्यानुकूल परिणति में सहायक होता है। जैसे घट की उत्पत्ति में कुलाल, दण्ड, चक्र, चीवरादि। यहाँ आचार्य ने उपादानकारण का मुख्यता से कथन किया है। उपादान की मुख्यता में विवक्षा यह है कि जीव और पुद्गल दोनों स्वतन्त्र द्रव्य हैं। अत: दोनों का परस्पर एकद्रव्यरूप परिणमन नहीं हो सकता। स्वकीय परिणमन का स्व ही उपादानकारण हो सकता है, ऐसा नियम है। अत: पगलद्रव्य में जो कर्मरूप परिणमन होता है उसका उपादानकारण पुद्गल ही है। इसी तरह जीव में जो रागादिक रूप परिणमन है उसका उपादान कारण जीव ही है। जीव और पुद्गल का यह परिणमन सर्वथा परनिरपेक्ष नहीं है क्योंकि यदि सर्वथा परनिरपेक्ष माना जायगा तो अकारणवान् होने से उसमें नित्यत्व का प्रसङ्ग आ जावेगा, परन्तु जीव के रागादिक परिणाम और पुद्गल के कर्मरूप परिणमन नित्य नहीं हैं। जब अनित्य हैं तब किसी कारण से ही उनकी उत्पत्ति होना चाहिये। इस स्थिति में निमित्त कारण की अपेक्षा आवश्यक रहती है। निमित्तकारण स्वयं कार्यरूप परिणत नहीं होता। इसलिये भिन्न द्रव्य के
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