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कर्तृ-कर्माधिकार
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जीवपरिणामहे, कम्मत्तं पुग्गला परिणमंति । पुग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जीवो वि परिणमइ ।।८।। ण वि कुव्वइ कम्मगुणे जीवो कम्मं तहेव जीवगुणे। अण्णोण्णणिमित्तेण दु परिणाम जाण दोण्हं पि ।।८१।। एएण कारणेण दु कत्ता आदा सएण भावेण ।। पुग्गलकम्मकयाणं ण दु कत्ता सव्वभावाणं ।।८२।।
अर्थ- पद्गल जीव के रागादिक परिणामों का निमित्त पाकर कर्मभाव को प्राप्त हो जाते हैं। इसी तरह जीव भी ज्ञानावरणादि कर्मों के विपाककाल रूप निमित्त को पाकर स्वीय रागादि भावरूप परिणम जाता है। ऐसा निमित्त-नैमित्तिकसम्बन्ध होने पर भी जीवद्रव्य कर्म में किसी गण का उत्पादक नहीं है। अर्थात् पद्गलद्रव्य स्वयं ज्ञानावरणादिभाव को प्राप्त हो जाता है। इसी तरह कर्म भी जीव में किन्हीं गुणों को नहीं करता है किन्तु मोहनीय आदि कर्म के विपाक को निमित्त कर जीव स्वयमेव रागादि रूप परिणमन करता है। इतना होने पर भी पुद्गल और जीव इन दोनों का परिणमन परस्परनिमित्तक है, ऐसा जानो। इसीसे आत्मा अपने भावों के द्वारा अपने परिणमन का कर्ता होता है, पुद्गलकर्म कृत जो सब भाव हैं उनका कर्ता नहीं है। अर्थात् पुद्गल के जो ज्ञानावरणादि कर्म है उनका कर्ता पुद्गल है और जीव के जो रागादिभाव हैं उनका कर्ता जीव है।
विशेषार्थ- जिस कारण से जीव के रागादिक परिणामों का निमित्त पाकर कार्मणवर्गणारूप पुद्गलद्रव्य स्वयमेव ज्ञानावरणादि कर्मरूप परिणम जाता है तथा पद्गलज्ञानावरणादि कर्मों के विपाक काल को पांकर जीव स्वयमेव रागादिक भावरूप पर्याय को प्राप्त हो जाता है। इस कारण जीव और पुद्गलपर्यायों में परस्पर हेतुत्व का उपन्यास होने पर भी जीव और पुद्गल में चूँकि व्याप्य-व्यापकभाव नहीं है अत: जीव के पुद्गलपरिणामों का और पुद्गलकर्मों के जीवपरिणामों का कर्तृ-कर्मभाव सिद्ध नहीं होता है। किन्तु मात्र निमित्त-नैमित्तिकभाव का प्रतिषेध नहीं है। अत: परस्पर निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध द्वारा दोनों का परिणमन होता है। अर्थात् पुद्गलकर्म के विपाक काल में जीव रागादिक रूप परिणमन को प्राप्त होता है और जीव के रागादिक परिणामों का निमित्त पाकर कार्मणवर्गणारूप पुद्गलद्रव्य ज्ञानावरणादिभाव को प्राप्त होता है।
यही पुरुषार्थसिद्धयुपाय में श्री अमृतचन्द्रसूरिने कहा है
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