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________________ १२० समयसार न ग्रहण करता है, न उसरूप परिणमन करता है और न उसरूप उत्पन्न होता है किन्तु प्राप्य, विकार्य और निर्वर्त्य के भेद से त्रिरूपता को प्राप्त व्याप्यलक्षण से युक्त स्वभावरूप जो कर्म है उसे स्वयं अन्तर्व्यापक होकर आदि, मध्य और अन्त में व्याप्तकर उसी को ग्रहण करता है, उसीरूप परिणमता है और उसीरूप उत्पन्न होता है। इसलिये प्राप्य, विकार्य और निर्वर्त्य के भेद से त्रिरूपता को प्राप्त, व्याप्यलक्षण से युक्त परद्रव्य के परिणामरूप कर्म को नहीं करनेवाला तथा जीवपरिणाम और स्वपरिणामस्वरूप कर्मफल को नहीं जाननेवाला जो पुद्गलद्रव्य है उसका जीव के साथ कर्तृ-कर्मभाव नहीं है।।७९।। यही निष्कर्ष श्रीअमृतचन्द्र स्वामी कलशा में प्रकट करते हैं स्रग्धराछन्द ज्ञानी जाननपीमां स्वपरपरिणतिं पुद्गलश्चाप्यजानन्, व्याप्तृ-व्याप्यत्वमन्तः कलयितुमसहौ नित्यमत्यन्तभेदात्। अज्ञानात्कर्तृकर्मभ्रममतिरनयोर्भाति तावन्न यावद्, विज्ञानार्चिश्चकास्ति क्रकचवदयं भेदमुत्पाद्य सद्यः।। ५० ।। अर्थ- ज्ञानी इस निज और पर की परिणति को जानता है तो भी, और पुद्गल इस निज और पर की परिणति को नहीं जानता है तो भी, ये दोनों नित्य ही अत्यन्त भेदरूप होने से अन्तरङ्ग में व्याप्य-व्यापकभाव को प्राप्त करने में असमर्थ हैं। इनमें जो कर्तृ-कर्म की भ्रमपूर्ण बुद्धि है वह अज्ञान से भासमान है और वह तब तक भासमान होती रहती है जब तक करोत (आरा) की तरह निर्दयतापूर्वक दोनों में भेद उत्पन्न कर शीघ्र ही भेदज्ञानरूपी ज्योति प्रकाशमान नहीं होने लगती। भावार्थ- ज्ञानी जीव अपने और पर के परिणाम को जानता है और पुद्गलद्रव्य अपने तथा परके परिणाम को नहीं जानता है। इस प्रकार दोनों में अत्यन्त भेद होने से कर्त-कर्मभाव का होना अत्यन्त असम्भव है। यह कर्त-कर्मभाव की प्रवृत्ति अज्ञान से होती है। जिस समय विज्ञानरूपी ज्योति का उदय होता है उस समय अपने आप, जैसे क्रकच के द्वारा काष्ठ के दो खण्ड हो जाते हैं वैसे ही यह प्रवृत्ति भिन्न हो जाती है-जीव और पुद्गल दोनों अलग भासमान हो जाते हैं।।५० ।। आगे यद्यपि जीव और पुद्गलपरिणाम में परस्पर निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है तथापि उनमें कर्तृ-कर्मभाव नहीं है, यह कहते हैं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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