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कर्तृ-कर्माधिकार
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विशेषार्थ - ज्ञानी अनन्त पुद्गलकर्म के फल को जानता है तो भी परद्रव्य पर्यायों में न तो परिणमता है न उनको ग्रहण करता है और न उनमें उत्पन्न होता है क्योंकि प्राप्य, विकार्य और निर्वर्त्य है लक्षण जिसका ऐसा व्याप्यरूप कर्म है। यहाँ पर सुख-दुःखादि रूप से जो पुद्गलकर्म का फल है वही व्याप्यरूप कर्म से विवक्षित है। उस सुखदुःखादिरूप पुद्गलकर्म फल को, पुद्गलद्रव्य स्वयं अन्तर्व्यापक होकर उसकी आदि, मध्य, अन्त अवस्थाओं में व्याप्त होता हुआ ग्रहण करता है, उसरूप परिणमता है और उसीरूप उत्पन्न होता है, इसीसे पुद्गलद्रव्य के द्वारा यह सुखदुःखादिफल रूप पुद्गलकर्म का फल किया जाता है । अतः पुद्गलद्रव्य कर्त्ता है और सुख-दुःखादिफल रूप पुद्गलकर्म फल कर्म है। ज्ञानी जीव इस पुद्गलकर्म फल को यद्यपि जानता है तो भी स्वयं अन्तर्व्यापक होकर बाह्यस्थित जो परद्रव्य है उसके परिणाम को मृतिका-कलश के सदृश आदि, मध्य और अन्त में व्याप्त होकर न तो ग्रहण करता है, न उस रूप परिणमता है और न उसरूप से उत्पद्यमान होता है । इसलिये प्राप्य विकार्य और निर्वर्त्य के भेद से त्रिरूपता को प्राप्त, व्याप्यलक्षण वाला जो परद्रव्य का परिणामरूप कर्म है उसका कर्त्ता नहीं है किन्तु सुख-दुःखादिरूप पुद्गलकर्म फल को जानता है । इस तरह परद्रव्य के परिणामस्वरूप कर्म को नहीं करनेवाला तथा सुखदःखादिरूप पुद्गलकर्म फल को जाननेवाला जो ज्ञानी जीव है उसका पुद्गल के साथ कर्तृ - कर्मभाव नहीं है । इस गाथा में यह दिखलाया गया है कि पुद्गलकर्म के फल सुखदुःख को जाननेवाला जो जीव है उसका भी पुद्गल के साथ कर्तृ-कर्मभाव नहीं है । । ७८ ।।
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अब जीव के परिणाम को, अपने परिणाम को तथा अपने परिणाम के फल को नहीं जाननेवाला जो पुद्गलद्रव्य है उसका जीव के साथ कर्तृ- कर्मभाव क्या उपपन्न हो सकता है या नहीं, यह दिखाते हैं
विपरिणमदि ण गिण्हदि उप्पज्जदि ण परदव्वपज्जाए । पुग्गलदव्वं पि तहा परिणमइ सएहिं भावेहिं । । ७९ ।।
अर्थ- जिस प्रकार जीव परद्रव्यपर्यायों में न उत्पन्न होता है, न परिणमता है और न उन्हें ग्रहण करता है। इसी प्रकार पुद्गलद्रव्य भी परद्रव्यपर्यायों को न ग्रहण करता है, न उनमें उत्पन्न होता है और न तद्रूप परिणमता है, किन्तु स्वकीय पर्यायों के द्वारा परिणमन करता है ।
विशेषार्थ - क्योंकि जीवपरिणाम को, अपने परिणाम को और अपने परिणाम के फल को भी नहीं जाननेवाला पुद्गलद्रव्य स्वयं अन्तर्व्यापक होकर परद्रव्य के परिणाम को मृत्तिकाकलश के समान आदि, मध्य और अन्त में व्याप्त कर उसे
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