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समयसार
उत्तर देते हैं
ण वि परिणमदि ण गिण्हदि उप्पज्जदि ण परदव्वपज्जाए। णाणी जाणतो वि हु सगपरिणामं अणेयविहं।।७७।।
अर्थ- ज्ञानी अनेक प्रकार के स्वकीय परिणाम को जानता हुआ भी परद्रव्य की पर्यायों रूप न परिणमन करता है, न उन्हें ग्रहण करता है और न उन रूप उत्पन्न ही होता है।
विशेषार्थ- प्राप्य, विकार्य और निर्वर्त्य के भेद से भेदत्रय को प्राप्त जो आत्मपरिणामरूप कर्म है वह व्याप्य है, आत्मा अन्तर्व्यापक होकर आदि, मध्य और अन्त अवस्थाओं में व्याप्त होता हुआ उस आत्मपरिणाम को ग्रहण करता है उस रूप परिणमन करता है और उस रूप उत्पन्न होता है। अत: आत्मा कर्ता है
और उसके द्वारा किया हुआ आत्मपरिणाम कर्म है। ज्ञानी जीव उस आत्मपरिणाम रूप कर्म को यद्यपि जानता है तो भी स्वयं अन्तर्व्यापक होकर बाह्य स्थित परद्रव्य के परिणाम को, मृत्तिका-कलश के समान आदि, मध्य और अन्त अवस्थाओं में व्याप्त होकर न ग्रहण करता है, न उस रूप परिणमन करता है और न उस रूप उत्पन्न होता है। अतएव प्राप्य, विकार्य और निर्वर्त्य के भेद में त्रिरूपता को प्राप्त जो परद्रव्य का परिणामरूप कर्म है उसका कर्ता नहीं है किन्तु स्वकीय परिणाम को जानता है। इस तरह परद्रव्य के परिणामस्वरूप कर्म को नहीं करनेवाला तथा स्वकीय परिणाम को जाननेवाला जो ज्ञानी है उसका पुद्गलद्रव्य के साथ कर्तृ-कर्मभाव नहीं है। पहली गाथा में पुद्गल के परिणाम को जाननेवाले जीव का पुद्गल के साथ कर्तृ-कर्मभाव अथवा व्याप्यव्यापक भाव नहीं है, यह बताया गया है और इस गाथा में अपने परिणाम को जानने वाले ज्ञानी के साथ पुद्गल का कर्तृ-कर्मभाव अथवा व्याप्यव्यापकभाव नहीं है, यह बताया गया है।।७७।।
आगे पुद्गलकर्म के फल को जाननेवाले जीव का पुद्गल के साथ कर्त-कर्मभाव निष्पन्न हो सकता है या नहीं, इस आशङ्का का उत्तर देते हैं
ण वि परिणमदि ण गिण्हदि उप्पज्जदि ण परदव्वपज्जाए। णाणी जाणतो वि हु पुग्गलकम्मफलमणंतं।।७८।।
अर्थ- ज्ञानी जीव अनन्त प्रकार के पुद्गल कर्म फल को जानता हुआ भी परद्रव्य की पर्यायोंरूप न परिणमन करता है, न उन्हें ग्रहण करता है और न उनमें उत्पन्न होता है।
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