SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 188
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्तृ-कर्माधिकार ११७ अर्थ- ज्ञानी जीव अनेक प्रकार के पुद्गलकर्म को जानता हुआ भी परद्रव्य की पर्यायरूप न तो परिणमन करता है, न उन्हें ग्रहण करता है और न उन रूप उत्पन्न होता है। विशेषार्थ- प्राप्य, विकार्य और निर्वर्त्य के भेद से कर्म तीन प्रकार का है। जहाँ सिद्ध पदार्थ को ग्रहण करने के लिये कर्ता यत्न पर होता है वहाँ प्राप्य कर्म कहलाता है। जैसे देवदत्त ग्राम को जाता है। यहां जो ग्राम पदार्थ है वह सिद्ध है, इसीसे उसे प्राप्य कर्म कहते हैं। जहाँ परपदार्थ द्रव्यान्तर के सम्बन्ध से विकारभाव को प्राप्त होता है, उसे विकार्य कर्म कहते हैं। जैसे दुग्ध खटाई के योग से दधिरूपता को प्राप्त होता हैं और जो पर्यायान्तर को तो प्राप्त हो जावे परन्तु विकारभावरूप परिणत न हो उसे निर्वर्त्य कर्म कहते हैं। जैसे मृत्तिका घटरूप परिणमन को प्राप्त होती है। यहाँ मृत्तिका का घटात्मक परिणमन तो अवश्य हुआ, परन्तु विकृतावस्था रूप परिणमन नहीं हआ। इसीसे इसे निर्वर्त्य कर्म कहते हैं। प्रकत में प्राप्य, विकार्य और निर्वर्त्य के भेद से त्रिविध कर्मरूप जो पुद्गल के परिणामन हैं वे व्याप्य हैं, उनमें पुद्गल द्रव्य अन्तर्व्यापक होकर आदि, मध्य, अन्त अवस्थाओं में व्याप्त होता हुआ उन्हें ग्रहण करता है, उन रूप परिणमन करता है और उनमें उत्पद्यमान होता है। इस प्रकार पुद्गलद्रव्य के द्वारा कर्म की उत्पत्ति होती है। उस कर्म को ज्ञानी यद्यपि जानता है तो भी आत्मा स्वयं अन्तर्व्यापक होकर बाह्य में रहनेवाले परद्रव्यों के परिणाम को मृत्तिका कलश की तरह आदि, मध्य और अन्त अवस्थाओं में व्याप्त होकर न तो ग्रहण करता है, न उनरूप परिणमता है और न उनमें उत्पन्न होता है। इस तरह परद्रव्य के परिणमन रूप व्याप्य लक्षण वाले कर्म को नहीं करनेवाला तथा पुद्गलकर्म को जाननेवाला जो ज्ञानी जीव है उसका पुद्गल के साथ कर्त-कर्मभाव नहीं है। तात्पर्य यह है कि जीव अपने से भिन्न जो पुद्गलद्रव्य है उस रूप कभी परिणमन नहीं करता है क्योंकि जीव चेतन है और पुद्गलद्रव्य अचेतन है, चेतन, अचेतनरूप परिणमन नहीं कर सकता। इसी तरह जीव पुद्गल को ग्रहण नहीं करता, क्योंकि जीव अमूर्तिक है, और पुद्गल मूर्तिक है, और परमार्थ से जीव पुद्गल को उत्पन्न नहीं करता है क्योंकि चेतन, अचेतन को उत्पन्न करने की सामर्थ्य से शून्य है। इस तरह पुद्गल जीव का कर्म नहीं है और जीव पुद्गल का कर्ता नहीं है, जीव का स्वभाव तो ज्ञाता है, अत: वह ज्ञानरूप परिणमन करता हुआ पुद्गलद्रव्य को जानता भर है। इस तरह जाननेवाले जीव का पुद्गल के साथ कर्तृ-कमभाव कैसे हो सकता है?।।७६।। __ आगे स्वकीय परिणाम को जाननेवाला जो जीव है उसका क्या पुद्गल के साथ कर्तृ-कर्म भाव हो सकता है या नहीं, इस आशङ्का का Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy