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यह कर्तृत्व से शून्य होता है। यहाँ 'उद्दामविवेकघस्मरमहोभारेण' ऐसा यदि एक पद माना जावे तो उसका अर्थ होता है उत्कट विवेकरूपी सर्वग्रासी ज्ञानतेज के भार से अज्ञानतिमिर को भेदता हुआ ।
समयसार
भावार्थ- जो सब अवस्थाओं में नियमरूप से रहे वह तो व्यापक है और जो विशेष अवस्थाएँ हैं वे व्याप्य हैं, ऐसी वस्तु की व्यवस्था होने से द्रव्य तो व्यापक है और पर्याय व्याप्य हैं। वे पर्याय द्रव्य के साथ कथञ्चित् तादात्म्य सम्बन्ध से अनुस्यूत हैं । कोई भी ऐसा समय नहीं, जिसमें पर्याय से वियुक्त द्रव्य का सत्त्व पाया जावे और न कोई ऐसा समय है, जिसमें द्रव्य से वियुक्त पर्यायों का सत्त्व पाया जावे। केवल द्रव्य अन्वय रूप से सर्वदा नित्य रहता है और पर्याय व्यतिरेकरूप हैं - एक के सद्भाव में अन्य पर्याय का स्वत्व नहीं रहता, क्योंकि पर्याय क्षण्ध्वंसी है और द्रव्य नित्य है । इस प्रकार द्रव्य और पर्याय दोनों में अविनाभाव का नियम है। यही श्रीप्रवचनसार में स्वयं कुन्दकुन्दमहाराज ने लिखा है
णत्थि विणा परिणामं अत्थो अत्थं विणेह परिणामो । दव्वगुणपज्जयत्थो
अत्थो
अत्थित्तणिव्वत्तो।।
अर्थात् परिणाम के बिना अर्थ नहीं है और अर्थ के बिना परिणाम नहीं है । जो द्रव्य, गुण और पर्यायों में स्थित है वही अर्थ है, वह अर्थ अपने अस्तित्व से स्वयं सिद्ध है। परमार्थ से व्याप्यव्यापकता एकद्रव्य में बनती है, भिन्न द्रव्यों में नहीं बनती और व्याप्यव्यापकभाव के बिना कर्तृ-कर्म की व्यवस्था नहीं होती, क्योंकि जो व्यापक होता है वह कर्ता कहलाता है और जो व्याप्य होता है वह कर्म कहा जाता है। जब एकद्रव्य में ही व्याप्यव्यापकभाव बनता है तब कर्तृकर्मभाव भी एक द्रव्य में ही बनेगा । इस तरह भिन्न द्रव्य होने से आत्मा रागादिरूप कर्मपरिणाम का और रसगन्धादिरूप शरीर के परिणाम का कर्ता कैसे हो सकता है ? इस प्रकार का उत्कट विवेक जब इस जीव को उत्पन्न होता है तब वह अनादिवासना से वासित मिथ्याज्ञान- तिमिर को नष्ट कर ज्ञानी होता है और तभी परद्रव्य के कर्तृत्व से मुक्त होता है।
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आगे पुद्गलकर्म को जाननेवाला जीव है उसका पुद्गल के साथ कर्तृ - कर्मभाव क्या है, क्या यहीं है, इसी आशंका का उत्तर देते हैंण विपरिणम ण गिण्हइ उप्पज्जइ ण परदव्वपज्जाए। गाणी जाणतो विहु पुग्गलकम्मं अणेयविहं । । ७६ ।।
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