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________________ कर्तृ-कर्माधिकार ११५ ये सब पुद्गलद्रव्य के ही परिणमन हैं। अतएव जैसा घट और मृत्तिका का परस्पर में व्याप्यव्यापकभाव है वैसा ही इन मोह-राग-द्वेषादि तथा रूप-रसादि परिणामों का पुद्गलद्रव्य के साथ व्याप्यव्यापकभाव सम्बन्ध है क्योंकि इनके करने में स्वयं पुद्गलद्रव्य स्वतन्त्र रूप से कर्ता है अर्थात् पुद्गलद्रव्य व्यापक है और जो मोह-राग-द्वेषादि तथा रूप-रसादि परिणाम हैं वे स्वयं व्याप्य होने से कर्म हैं। पुद्गलपरिणाम और आत्मा में घट और कुम्भकार के सदृश व्याप्यव्यापकभाव का अभाव होने से कर्तृ-कर्मभाव का अभाव है। अतएव आत्मा इन भावों का कर्ता नहीं है किन्तु यहाँ पर यह विशेषता है कि परमार्थ से यद्यपि पुद्गलपरिणाम का ज्ञान और पुद्गल इन दोनों में घट और कुम्भकार के समान व्याप्यव्यापकभाव का अभाव होने से कर्तृ-कर्मभाव सिद्ध नहीं होता है तो भी आत्मपरिणाम और आत्मा इन दोनों में घट और मृत्तिका के समान व्याप्य व्यापकभाव का सद्भाव होने से कर्त-कर्मभाव सिद्ध होता है अर्थात् आत्मा स्वतंत्र व्यापक होने से कर्ता है और आत्मपरिणाम व्याप्य होने से कर्म है। यहाँ जो पुद्गलपरिणाम का ज्ञान है, उसे आत्मपरिणाम मानकर कर्मरूप से स्वीकृत किया गया है। इस तरह पुद्गलपरिणाम के ज्ञानरूप आत्मपरिणाम को कर्मरूप से करते हुए आत्मा को जो जानता है वही अन्य से विविक्त ज्ञानस्वरूप होता हुआ ज्ञानीव्यपदेश को प्राप्त करता है। यहाँ ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये कि ज्ञाता जो आत्मा है उसका पुद्गलपरिणाम व्याप्य हो गया, क्योंकि पुद्गल और आत्मा में ज्ञेयज्ञायकसम्बन्ध का ही व्यवहार है, व्याप्यव्यापकसम्बन्ध का व्यवहार नहीं है। किन्तु पुद्गलपरिणामनिमित्तक जो ज्ञान है वह ज्ञाता का व्याप्य है। तात्पर्य यह है कि ज्ञानी पुरुष कर्म और नोकर्म के परिणाम का कर्ता नहीं है किन्तु ज्ञाता है।।७५।। इसी भाव को श्री अमृतचन्द्र स्वामी कलशा के द्वारा प्रकट करते हैं शार्दूलविक्रीडितछन्द व्याप्यव्यापकता तदात्मनि भवेन्नैवातदात्मन्यपि व्याप्यव्यापकभावसंभवमृते का कर्तृकर्मस्थितिः । इत्युद्दामविवेकघस्मरमहो भारेण भिन्दंस्तमो ज्ञानीभूय तदा स एष लसितः कर्तृत्वशून्यः पुमान् ।।४९।। अर्थ- व्याप्यव्यापकभाव तत्स्वरूप में ही होता है न कि अतत्स्वरूप में भी। और व्याप्यव्यापकभाव के संभव बिना कर्ता-कर्म की स्थिति क्या है? कुछ भी नहीं, इस प्रकार के उत्कट विवेक को भक्षण करनेवाले-नष्ट करनेवाले अज्ञानतिमिर को जोर देकर भेदता हुआ यह पुरुष जब ज्ञानी होकर सुशोभित होता है, अहो, तभी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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