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________________ कर्तृ-कर्माधिकार ११३ जाना है। इस तरह ये आस्रव विरुद्ध स्वभाव वाले हैं, अविरुद्ध स्वभाव का अभाव होने से जीवस्वरूप नहीं हैं। ये आस्रव अपस्मार (मृगी) रोग के वेग के समान कभी तो तीव्ररूप से होने लगते हैं और कभी मन्दरूप से। जब मिथ्यात्वादि कर्मों का तीव्र उदय रहता है तब यह जीव हिंसादि पापों में धर्मबुद्धि को श्रद्धाकर नाना प्रकार के कुकृत्यों में अपनी सम्पूर्ण शक्ति का दुरुपयोग करता हुआ भी आपको धार्मिक मानता है। इन्हीं के तीव्र उदय में देवता आदि मानसिक आहार वालों के उद्देश्य से बकरे, भैंसे आदि दीन पशुओं के वध करने में भी इस निर्दयी को दया नहीं आती और जब इनका मन्दोदय होता है तब दया आदि गुणों के पोषक परोपकारादि कार्यों में प्रवृत्ति करता हुआ यह जीव अपने समय का सदुपयोग करता है। इस तरह ये आस्रव एकरूप नहीं रहते। अतः अध्रुव स्वभाव वाले हैं परन्तु जीव ध्रुव है तथा चैतन्यचमत्कार वाला है। ये आस्रव शीत-दाहज्वर के आवेश के समान क्रम से उत्पन्न होते हैं अत: अनित्य हैं। अर्थात् कभी तो शुभास्रव होता है और कभी अशुभास्रव होता है इसलिये अनित्य हैं। नित्य यदि है तो विज्ञानघनस्वभाव वाला जीव ही है। जिस प्रकार काम-सेवन के समय वीर्य के छूटने पर काम का दारुण वेग नष्ट होने लगता है उसे कोई रोक नहीं सकता, इसी प्रकार जब अपना फल देकर ये आस्रव झड़ने लगते हैं तब इनका रक्षक कोई नहीं होता, अत: ये आस्रव अशरण हैं। इसके विपरीत यदि शरण सहित है तो स्वयं गुप्त और सहज चैतन्य शक्तिवाला जीव ही है। ये आस्रव नित्य ही आकुलता स्वभाव वाले तथा आकुलता के उत्पादक हैं, अत: दुःखस्वरूप हैं। यदि अदुःखस्वरूप है तो अनाकुलता रूप स्वभाव से युक्त जीव ही है। ये आस्रव वर्तमान में ही दुःखरूप हैं सो नहीं, उत्तरकाल में भी आकुलता के कारण हैं। अतएव आकुलता को उत्पन्न करनेवाले पुद्गलपरिणाम के उत्पादक होने से दुःखरूप फल से युक्त हैं। इसके विपरीत यदि दुःखरूप फल से रहित कोई है तो सभी प्रकार के पुद्गल परिणाम का अकारण जीव ही है। इस प्रकार जब आत्मा और आस्रव का भेदज्ञान हो जाता है तब कर्मविपाक शिथिल हो जाता है और उसके शिथिल होने से जैसे घनसमह के विघटने से दिशाओं का समूह अत्यन्त विस्तृत हो जाता है वैसे ही स्वभाव से ही आत्मा की चेतनाशक्ति अत्यन्त विस्तृत हो जाती है और जैसे-जेसे उसके उदय की वृद्धि होती जाती है वैसे-वैसे ही आत्मा आस्रवों से निवृत्त होता जाता है और जैसा-जैसा आस्रवों से निवृत्त होता जाता है वैसा-वैसा ही विज्ञानघनस्वभाव होता जाता है। यह आत्मा ज्यों ही विज्ञानघनस्वभाव होता है त्यों ही आस्रवों से अच्छी तरह निवृत्त हो जाता है और ज्यों ही आस्रवों से निवृत्त होता है त्यों ही विज्ञानघनस्वभाव हो जाता है। इस प्रकार ज्ञान का उदय और आस्रव की निवृत्ति दोनों ही एककाल में होते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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