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________________ ११२ समयसार से निवृत्ति कर निश्चलरूप से अवस्थित होता हूँ, परद्रव्यों के निमित्त से जायमान रागादिकभाव रूप चञ्चल कल्लोलमालाओं का निरोध कर इसी निजस्वरूप का अनुभव करता हूँ, स्वकीय अज्ञान से आत्मा में जो अनेक विध विकार भाव उत्पन्न होते थे उन सबका नाश करता हूँ, ऐसा जब इस जीव को आत्मा में निश्चय हो जाता है तब वह, जिसने चिरकाल से पकड़े हुए जहाज को छोड़ दिया ऐसे समुद्र के आवर्त के समान, शीघ्र ही समस्त विकल्पों को उगल देता है तथा अचलित और अमल आत्मस्वभाव का अवलम्बन करता हुआ विज्ञाघननस्वरूप होकर निश्चित ही आस्रवों से निवृत्त हो जाता है। यहाँ कोई यह आशङ्का करे कि आत्मज्ञान और आस्रव की निवृत्ति एक ही काल में किस प्रकार होती है? तो उसका उत्तर यह है कि जब इस जीव को आत्मा और आस्रव का यथार्थ सम्यग्ज्ञान हो जाता है तब आस्रव की निवृत्ति स्वयमेव हो जाती है। मिथ्यादर्शन के अभाव से आत्मा में जहाँ सम्यग्दर्शन होता है वहाँ मिथ्यात्वगुणस्थान में बँधनेवाली मिथ्यात्वप्रकृति, हुण्डक संस्थान, नपुंसकवेद, असंप्राप्तसृपाटिका संहनन, एकेन्द्रियजाति, स्थावर, आतप, सूक्ष्म, साधारण, अपर्याप्त, विकलत्रय, नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी और नरकायु ये सोलह प्रकृतियाँ आस्रव रूप नहीं रहतीं अर्थात् इनका बन्ध मिथ्यात्वगुणस्थान में ही होता है। इसी प्रकार क्रम से गुणस्थानों की परिपाटी के अनुसार जैसे-जैसे ज्ञान और चारित्र की वृद्धि होती जाती है वैसे-वैसे इन सबका अभाव होता जाता है। यह ग्रन्थ ज्ञानगुण की विशेषता का वर्णन करता है। अत: आचार्यों का कहना है कि ज्ञान और आस्रव की निवृत्ति समकालीन है।।७३।। यही दिखाते हैंजीवणिबद्धा एए अधुव अणिच्चा तहा असरणा य। दुक्खा दुक्खफला त्ति य णादूण णिवत्तए तेहिं ।।७४।। अर्थ- जीव के साथ लगे हुए ये आस्रव अध्रुव हैं, अनित्य हैं, अशरण हैं, दुःखरूप हैं, और दुःखरूप फल से युक्त हैं ऐसा जानकर ज्ञानी जीव उनसे निवृत्त होता है। विशेषार्थ- ये आस्रव, लाख और वृक्ष के समान वध्यघातक स्वभाव से आत्मा के साथ निबद्ध हो रहे हैं अर्थात् जिस प्रकार पीपल आदि वृक्षों का लाख के सम्बन्ध से घात होता है उसी प्रकार आत्मा के साथ आस्रवों का सम्बन्ध होने से उसके ज्ञानदर्शनादि गणों का घात होता है। यहाँ घात का अर्थ ज्ञानादिक गुणों में नाना प्रकार की इष्टानिष्ट कल्पनाएँ होकर आत्मीय स्वस्थ अवस्था का प्रलय हो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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