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________________ कर्तृ-कर्माधिकार १११ अर्थ- जो परपरिणति को छोड़ रहा है, भेदवाद का खण्डन कर रहा है, स्वयं अखण्डरूप है तथा अतिशय तेज:पूर्ण है ऐसा यह उत्कृष्ट ज्ञान उदित हुआ है। इसके उदित होने पर कर्तृ-कर्म की प्रवृत्ति को अवकाश कैसे मिल सकता है और पौद्गलिक कर्मबन्ध किस प्रकार हो सकता है। भावार्थ- मोह के निमित्त से ज्ञान की परपदार्थों में परिणति होती थी अथवा ज्ञान में रागादि विकारी भावों की परिणति होती थी, सो जब परपरिणति का कारण जो मोह था वही निकल गया, तब ज्ञान उस परपरिणति को छोड़कर अपने स्वभाव में ही परिणति करने लगा। क्षयोपशम के निमित्त से ज्ञान में नाना भेदों की आपत्ति होती है परन्तु अब क्षयोपशम का अभाव हो गया है। अत: भेदवादों को खण्डकर ज्ञान एक अखण्ड प्रतिभासरूप रह गया। ऐसा अतिशय तेजस्वी उत्कृष्ट ज्ञान जब प्रकट हो जाता है तब कर्तृ-कर्म की प्रवृत्ति स्वयं हट जाती है और कर्त-कर्म की प्रवृत्ति के हटने पर पौद्गलिक कर्मबन्ध स्वयं समाप्त हो जाता है।।४७।। आगे वह कौन-सी विधि है जिसके द्वारा आस्रव से आत्मा की निवृत्ति हो जाती है, इस आशङ्का का उत्तर देते हैं अहमिक्को खलु सुद्धो णिम्ममओ णाण-दसण-समग्गो। तमि ठिओ तच्चित्तो सव्वे एए खयं णेमि।।७३।। अर्थ- मैं निश्चय से एक हूँ, शुद्ध हूँ, ममत्वरहित हूँ, ज्ञान-दर्शन से पूर्ण हँ तथा उसी में स्थित और उसी में तल्लीन होता हुआ इन सब क्रोधादिक भावों को क्षय को प्राप्त कराता हूँ। विशेषार्थ- वास्तव में तत्त्वदृष्टि से देखा जावे तो इस संसार में यावत् पदार्थ हैं वे सब अपने अपने स्वरूप में समवस्थित भिन्न-भिन्न ही हैं, मैं द्रव्यदृष्टि से एक हूँ (स्वानुभव) प्रत्यक्ष का विषय हूँ, किसी के द्वारा मुझमें कदापि किसी प्रकार की बाधा नहीं आती, इससे अक्षुण्ण हूँ तथा अनन्त चिन्मात्र ज्योतिःस्वरूप हूँ, नित्य ही विज्ञानघनस्वभाव वाला होने से एक हूँ, समस्त जो षटकारकचक्र की प्रक्रिया है वह भेद दृष्टि में है, अभेददृष्टि में इसका अस्तित्व नहीं। अत: मैं स्वकीय निर्मल अनुभूतिमात्र के सद्भाव से सर्वदैव शुद्ध हूँ, पुद्गल जिनका स्वामी है ऐसे क्रोधादिक नानाप्रकार के भावों का मैं स्वामी नहीं हूँ, अत: तद्रूप परिणमन के अभाव में निर्ममत्व हूँ, आत्मपदार्थ चिन्मात्र तेज वाला हूँ तथा वस्तुस्वभाव के कारण सामान्यविशेषरूप भाव से परिपूर्ण हूँ, अत: मैं ज्ञान-दर्शन से समग्र हूँ, गगनादिक के सदृश मैं भी पारमार्थिक विशेष हूँ, इसी से मैं अब इसी आत्मा में सम्पूर्ण परद्रव्यों की प्रवृत्ति Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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