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जीवाजीवाधिकार
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मोहणकम्मस्सुदया दु वणिया जे इमे गुणट्ठाणा।
ते कह हवंति जीवा जे णिच्चमचेदणा उत्ता।।६८।।
अर्थ- जो ये गुणस्थान मोहकर्म के उदय से वर्णन किये गये हैं वे जीव कैसे हो सकते हैं, क्योंकि ये नित्य अचेतन कहे गये हैं।
विशेषार्थ- ये जो मिथ्यात्वादि चतुर्दश गुणस्थान हैं वे सब पौद्गलिक मोहकर्म की प्रकृतियों के उदय से होने के कारण अचेतन हैं तथा कार्य कारण के अनुरूप ही होते हैं। जैसे 'यवधान्य से यव ही उत्पन्न होते हैं' इस न्याय से ये गुणस्थान पुद्गल ही हैं, जीव नहीं हैं। जब इन गुणस्थानों का कारण जो मोहकर्म है वह पुद्गलात्मक है तब ये गुणस्थान भी निर्विवाद पुद्गलात्मक ही हैं। गुणस्थान अचेतन हैं, इसमें आगम ही प्रमाण है तथा चैतन्यस्वभाव से व्याप्त आत्मा से ये गुणस्थान भिन्न हैं, ऐसी भेदज्ञानियों को उपलब्धि हो रही है उसमें भी इनका अचेतनपन सिद्ध होता है। स्वयं अचेतन होने तथा पौद्गलिक मोहकर्म के उदय से जायमान होने के कारण गुणस्थान पुद्गलमय हैं। इसी तरह राग, द्वेष, मोह, प्रत्यय, कर्म, नोकर्म, वर्ग, वर्गणा, स्पर्धक, अध्यात्मस्थान, अनुभागस्थान, योगस्थान, बन्धस्थान, उदयस्थान, मार्गणास्थान, स्थितिबन्धस्थान, संक्लेशस्थान, विशुद्धिस्थान और संयमलब्धिस्थान ये सभी पुद्गलकर्म पूर्वक होने से नित्य ही अचेतन हैं। अतएव पुद्गल हैं, जीव नहीं, ऐसा स्वयमेव सिद्ध हुआ। इसीलिये रागादिक भाव जीव नहीं हैं, यह निर्विवाद सिद्ध हुआ।
मोह और योग के निमित्त से आत्मा के गुणों-भावों का जो क्रमश: विकास होता है उसे गुणस्थान कहते हैं। ये गुणस्थान आत्मा की शुद्ध परिणतिरूप नहीं हैं किन्तु पर के निमित्त से उत्पन्न होने के कारण अशुद्ध परिणतिरूप हैं। निश्चयनय स्व में स्व के निमित्त से जो परिणति होती है उसे ही ग्रहण करता है, अत: उसकी दृष्टि में पर के निमित्त से आत्मा में होनेवाली परिणतिरूप जो गुणस्थान हैं वे नहीं आते। निश्चयनय की दृष्टि में पौद्गलिक तथा अचेतन मोहकर्म के उदय से होनेवाले गुणस्थान पौद्गलिक तथा अचेतन कहे जाते हैं। यहाँ अचेतन का यह अर्थ नहीं कि घट-पटादि के समान सर्वथा जड़ हैं किन्तु चेतन जो आत्मद्रव्य, उसकी स्वकीय परिणति नहीं हैं, यह अर्थ ग्राह्य है। कुन्दकुन्दस्वामी ने निश्चय और व्यवहार के भेद से दो ही नय स्वीकृत किये हैं। इनमें द्रव्य की निज परिणति को विषय करने वाला निश्चयनय है और परपरिणति तथा पर के निमित्त से होनेवाली निज की परिणति को विषय करनेवाला व्यवहारनय है। ग्रन्थान्तरों में निश्चयनय के शुद्ध निश्चय और अशुद्ध निश्चय ऐसे दो भेद बतलाये हैं। निज में निज के निमित्त से होनेवाली परिणति
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