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समयसार
को विषय करनेवाला शुद्ध निश्चयनय है और पर के निमित्त से जायमान निज की परिणति को विषय करनेवाला अशुद्ध निश्चयनय है । इस कथन में गुणस्थान तथा रागादिक भाव अशुद्ध निश्चयनय से आत्मा के हैं ऐसा प्रतिपादन किया जाता है ।।६८।।
अब यहाँ यह शङ्का स्वयमेव होती है कि यदि ये गुणस्थानादि सब भाव जीव नहीं हैं तो फिर जीव क्या है ? इस शङ्का का उत्तर अमृतचन्द्र स्वामी कलशा में देते हैं
अनुष्टुप्छन्द
अनाद्यनन्तमचलं स्वसंवेद्यमिदं स्फुटम् । जीवः स्वयं तु चैतन्यमुच्चैश्चकचकायते । । ४१ ।।
अर्थ- जो स्वसंवेद्य है, अनादि है, अनन्त है, अचल है अर्थात् जिसका कभी विनाश नहीं होता, प्रकट है और चैतन्यस्वरूप है, ऐसा जीवनामक पदार्थ स्वयं अतिशय कर प्रदीपवत् प्रकाशमान हो रहा है।
भावार्थ - यह जीवतत्त्व द्रव्यदृष्टि से अनादि अनन्त है अर्थात् कभी नया उत्पन्न नहीं हुआ है और न कभी सत्ता का उच्छेद कर अन्त को भी प्राप्त होगा । अचल है अर्थात् चैतन्यस्वभाव से कभी चलायमान नहीं होता। मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ, मैं ज्ञानी हूँ इत्यादि रूप से इसकी प्रतीति सबको होती है, अतः स्वसंवेद्य है। सबके अनुभव में आता है, अतः स्फुट है तथा ज्ञान दर्शन का पुञ्ज होने से चैतन्यरूप है। ऐसा यह जीव स्वयं ही अतिशयरूप से प्रकाशमान हो रहा है, इसके जानने के लिये पदार्थान्तर के साहाय्य की आवश्यकता नहीं है । । ४१॥
चैतन्य ही जीव का निर्दोष लक्षण है, यह कलशा में दरशाते हैंशार्दूलविक्रीडित छन्द
वर्णाद्यैः सहितस्तथा विरहितो द्वेधास्त्यजीवो यतो
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नामूर्त्तत्वमुपास्य पश्यति जगज्जीवस्य तत्त्वं ततः ।
इत्यालोच्य विवेचकैः समुचितं नाव्याप्यतिव्यापि वा
व्यक्तं व्यञ्जितजीवतत्त्वमचलं चैतन्यमालम्ब्यताम् ।।४२।।
अर्थ- यदि जगत् अमूर्त्तत्त्वगुण की उपासना कर जीवतत्त्व का अवलोकन करता है तो यह लक्षण अतिव्याप्ति दोष से दूषित है क्योंकि जीव से भिन्न जो अजीव है वह भी वर्णादि से रहित और वर्णादि से सहित इस तरह दो प्रकार का
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