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समयसार
विशेषार्थ- बादर और सूक्ष्म के भेद से दो प्रकार के एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी, संज्ञी के भेद से दो प्रकार के पञ्चेन्द्रिय, इन सात के पर्याप्तक और अपर्याप्तक के भेद से दो-दो भेद होते हैं, अत: सब मिलाकर चौदह जीवस्थान होते हैं। ये जीवस्थान शरीर की संज्ञाएँ हैं, परन्तु सूत्र-आगम में इन्हें जीव की संज्ञाएँ कहा है, सो यह पर की प्रसिद्धि से घी के घड़े के समान व्यवहार है। परन्तु यह व्यवहार अप्रयोजनार्थ है। यहाँ अप्रयोजनार्थ का अर्थ सर्वथा प्रयोजन नहीं, ऐसा नहीं है किन्तु अनुदरा कन्या के समान ईषद् अर्थ में 'न' का प्रयोग होने से कुछ प्रयोजन से सहित, ऐसा है, यही दिखाते हैं- जैसे किसी की प्रसिद्धि में आजन्म से घी का घड़ा ही आ रहा है, उससे अतिरिक्त मिट्टी के घड़ा को वह नहीं जानता, उसके प्रबोध के लिए ऐसा कहा जाता कि जो यह घी का घड़ा है वह मिट्टी का बना हुआ है, घृतमय नहीं है, इस प्रकार उसके जानने के लिये जैसे 'घृतकुम्भ' यह व्यवहार होता है, ऐसे ही इस अज्ञानी जीव को, जिसके ज्ञान में अनादि संसार से अशुद्ध जीव ही आ रहा है तथा जो शुद्ध जीव से अनभिज्ञ है, उसके समझाने के लिये यह कहा जाता है कि यह जो वर्णादिमान् जीव है वह ज्ञानात्मक है वर्णादिमान् नहीं है, इस प्रकार उसकी प्रसिद्धि के लिए जीव में वर्णादिमान् यह व्यवहार चला आ रहा है।।६७।। यही बात श्री अमृतचन्द्र स्वामी कलशा में कहते हैं
घृतकुम्भाभिधानेऽपि कुम्भो घृतमयो न चेत् ।
जीवो वर्णादिमज्जीवजल्पनेऽपि न तन्मयः।।४० ।। अर्थ- जिस प्रकार 'घृतकुम्भ' ऐसा कहने पर भी कुम्भ घृतमय नहीं हो जाता उसी प्रकार वर्णादिमान् जीव है ऐसा कहने पर भी जीव वर्णादिमय नहीं हो जाता।
भावार्थ- जिस प्रकार घी के संयोग से मिट्टी के घड़े को व्यवहार में घी का घड़ा कहा जाता है उसी प्रकार बादर, सूक्ष्म आदि शरीर के संयोग से जीव को बादर, सूक्ष्म आदि कहा जाता है। वास्तव में जैसे घड़ा मिट्टी का ही है, घी का नहीं, ऐसे ही जीव ज्ञानघन ही है, बादर, सूक्ष्ममादिरूप नहीं। अत: शास्त्र में जहाँ बादर, सूक्ष्म आदि के शरीर को जीव कहा है वहाँ व्यवहारनय से कहा है तथा अज्ञानी जीवों के प्रबोधनार्थ वह व्यवहारनय ईषत् प्रयोजनभूत है।।४९।।
आगे जिस प्रकार जीवस्थान जीव नहीं हैं उसी प्रकार गुणस्थान भी जीव नहीं है, यह दिखाते हैं
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