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________________ जीवाजीवाधिकार अर्थ- इस संसार में जो वस्तु जिसके द्वारा रची जाती है वह उसी रूप होती है, अन्य रूप किसी तरह नहीं होती। जैसे सुवर्ण से बनी हुई तलवार की म्यान को लोग सुवर्ण की देखते हैं, तलवार को सुवर्ण की किसी तरह नहीं देखते। भावार्थ- तलवार की म्यान सुवर्ण की बनी है और तलवार लोहे की, तो संसार में लोग म्यान को सुवर्ण की और तलवार को लोहे की ही देखते हैं क्योंकि ऐसा नियम है कि जो वस्तु जिससे बनती है वह उसी रूप होती है। यहां प्रकृत में वर्णादिक पुद्गलमय नामकर्म की प्रकृतियों से रचे गये हैं इसलिये वे पुद्गल के ही हैं। चैतन्य का पुञ्ज जीव पद्गलमय प्रकृतियों से नहीं रचा गया है, इसलिये वह उनसे भिन्न स्वतन्त्र द्रव्य है।।३८।। पूर्व कलश में वस्तूत्पत्ति की सीमा बनाकर उससे प्रकृत अर्थ को सिद्ध करते हुए दूसरा कलशा कहते हैं उपजातिछन्द वर्णादिसामग्र्यमिदं विदन्तु निर्माणमेकस्य हि पुद्गलस्य। ततोऽस्त्विदं पुद्गल एव नात्मा ___यतः स विज्ञानघनस्ततोऽन्यः।।३९।। अर्थ- वर्ण आदि को लेकर गुणस्थान पर्यन्त की यह सभी सामग्री एक पुद्गलद्रव्य की रचना है, ऐसा आप जानें। अतएव यह सब पुद्गल ही हैं, जीव नहीं हैं, क्योंकि विज्ञानघन जीव उनसे भिन्न है। भावार्थ- यहाँ वर्णादि परपदार्थों से शुद्ध आत्मतत्त्व को पृथक् सिद्ध करने के लिये आचार्य ने कहा है कि यह वर्णादिक सामग्री पुद्गल की है, विज्ञानघन जीव इससे भिन्न पदार्थ है, अत: दोनों को भी भिन्न-भिन्न समझकर भेदविज्ञान को पुष्ट करो।।३९।। आगे इससे अन्य जितना भी है वह सब व्यवहार है, ऐसा कहते हैं पज्जत्तापज्जत्ता जे सुहुमा बादरा य जे चेव । देहस्स जीवसण्णा सुत्ते ववहारदो उत्ता ।।६७।। अर्थ- जो पर्याप्त और अपर्याप्त तथा सूक्ष्म और बादर ये जो शरीर की जीवसंज्ञाएँ सूत्र में कही गई हैं वे व्यवहार से कही गई हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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