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________________ समयसार संसारस्थ जीवों का भी वर्णादि के साथ तादात्म्य है ऐसा मानने पर जीव का अभाव होता है, इससे सिद्ध हुआ कि चाहे जीव संसारस्थ हो और चाहे संसारातीत, किसी का भी वर्णादि के साथ तादात्म्य नहीं है किन्तु संसारस्थ जीवों का वर्णादि के साथ क्षीर-नीर के समान परस्परावगाह रूप संयोग सन्बन्ध है।।६३, ६४।। आगे आचार्य इसका विशेष वर्णन करते हैंएक्कं च दोण्णि तिणि य चत्तारि य पंच इंदिया जीवा। वादर पज्जत्तिदरा पयडीओ णामकम्मस्स ।।५।। एदाहि य णिव्वत्ता जीवट्ठाणाउ करणभूदाहिं । पयडीहिं पुग्गलमईहिं ताहि कहं भण्णदे जीवो।।६६।। अर्थ- एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त और अपर्याप्त जीव ये सब नामकर्म की प्रकृतियाँ हैं। कारणभूत इन प्रकृतियों के द्वारा ही जीवस्थान रचे गये हैं। अत: पुद्गलमयी उन प्रकृतियों के द्वारा रचे गये जीवस्थान जीव के कैसे कहे जा सके हैं? विशेषार्थ- निश्चयनय से कर्म और करण में अभिन्नता है। जो जिसके द्वारा रचा जाता है वह वही होता है। जैसे सुवर्ण के द्वारा रचा गया सुवर्णपत्र सुवर्ण ही होता है अन्य नहीं। जब ऐसी वस्तु की सीमा है तब बादर, सूक्ष्म, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय, असंज्ञी और संज्ञी, पर्याप्त और अपर्याप्त नामक नामकर्म की पुद्गलमय प्रकृतियों से रचे गये जीवस्थान पुद्गल ही होंगे, जीव नहीं। नामकर्म की प्रकृतियों की पुद्गलात्मकता आगम सिद्ध है तथा इस अनुमान से भी सिद्ध है- 'नामकर्म की प्रकृतियाँ पुद्गलात्मक हैं क्योंकि उनका दिखाई देने वाला शरीरादि मूर्तिक कार्य पुद्गलात्मक हैं' इसी प्रकार गन्ध, रस, रूप, स्पर्श, शरीर, संस्थान और संहनन भी पुद्गलात्मक नामकर्म की प्रकृतियों के द्वारा रचे जाने से पद्गल से अभिन्न ही हैं। इससे यह निष्कर्ष निकला कि वर्णादिक जीव नहीं है।।६५,६६।। इसी बात को श्री अमृतचन्द्र स्वामी कलशा द्वारा कहते हैं उपजातिछन्द निर्वय॑ते येन यदत्र किञ्चित् तदेव तत्स्यान कथञ्चनान्यत् । रूक्मेण निर्वृत्तमिहासिकोशं पश्यन्ति रुक्मं न कथञ्चनासिम् ।।३८।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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