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जीवाजीवाधिकार
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वर्णादिक प्रकट और अप्रकट अवस्था को प्राप्त हुई अपनी उन-उन परिणतियों से पुद्गलद्रव्य का अनुगमन करते हुए जिस तरह पुद्गलद्रव्य का वर्णादि के साथ तादात्म्य सम्बन्ध प्रसिद्ध करते हैं उसी तरह वर्णादिक भाव, अपनी प्रकट और अप्रकट अवस्था को प्राप्त हुई उन-उन परिणतियों से जीव का अनुगमन करते हुए जीव का वर्णादिक के साथ तादात्म्य सम्बन्ध प्रसिद्ध करते हैं ऐसा जिसका अभिप्राय है उसके मत में शेष द्रव्यों से असाधारण वर्णादिमत्त्व जो पुद्गलद्रव्य का लक्षण था उसे जीवद्रव्य ने स्वीकृत कर लिया, अत: जीव और पुद्गल में अविशेषता का प्रसङ्ग आ जावेगा, अर्थात् दोनों एक समान हो जावेंगे। इस स्थिति में पद्गलद्रव्य से भिन्न जीव का अस्तित्व समाप्त हो जाने से जीव का अभाव हो जायेगा। अत: जीव का वर्णादिक के साथ तादात्म्य सम्बन्ध मानने में मूलोच्छेद दोष आता है।।६२।।
आगे संसार अवस्था में यदि जीव का वर्णादि के साथ तादात्म्य माना जावे तो क्या आपत्ति है? इसका भी गुरु उत्तर देते हैं
अह संसारत्थाणं जीवाणं तुज्झ होंति वण्णादी। तम्हा संसारत्था जीवा रूवित्तमावण्णा।।६३।। एवं पुग्गलदव्वं जीवो तहलक्खणेण मूढमदी। णिव्वाणमुपगदो वि य जीवत्तं पुग्गलो पत्तो ।।६४।।
(जुगल) अर्थ- यदि तेरे मत में संसारस्थ जीवों का वर्णादि के साथ तादात्म्य है ऐसा माना जावे, तो संसारस्थ जीव रूपीपने को प्राप्त हो जावेंगे, ऐसा मानने पर पुद्गलद्रव्य ही जीव सिद्ध हुआ और पुद्गल के समान लक्षण होने से हे मूढमते! निर्वाण को प्राप्त हुआ पुद्गल द्रव्य ही जीवपन को प्राप्त हुआ।
विशेषार्थ- संसारावस्था में जीव का वर्णादि के साथ तादात्म्य है ऐसा जिसका आग्रह है उसके मत में उस समय वह संसारी जीव अवश्य ही रूपीपन को प्राप्त होता है और अन्य द्रव्यों में नहीं पाया जाने वाला रूपीपन किसी द्रव्य का लक्षण है तब उस रूपीपन से लक्ष्यमाण जो कुछ होता है वह जीव होता है। रूपीपन से लक्ष्यमाण पुद्गलद्रव्य ही होता है, इस प्रकार स्वयमेव पुद्गलद्रव्य ही जीव होता है अन्य कोई नहीं। ऐसा होने पर मोक्ष अवस्था में भी नित्य स्वीय लक्ष्ण से लक्षित जो द्रव्य है वह अपनी समस्त अवस्थाओं में अनपायी तथा अनादिनिधन है, अत: पुद्गलद्रव्य ही स्वयं जीव हुआ, अन्य कोई नहीं, वही पुद्गलद्रव्य मोक्ष को प्राप्त हुआ और ऐसा होने से पुद्गल से भिन्न जीवद्रव्य का अभाव ठहरता है, इस तरह
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