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________________ समयसार तत्थ भवे जीवाणं संसारत्थाण होंति वण्णदी। संसारपमुक्काणं णत्थि हु वण्णादओ केई ।।६१।। अर्थ- वर्णादिक, संसारस्थ जीवों के उस संसार में रहते हुए होते हैं। संसार से छूटे हुए जीवों के वर्णादिक कोई भी नहीं हैं। विशेषार्थ- जब तक जीवों के शरीर का सम्बन्ध है तब तक उन जीवों के वर्णादिका सम्बन्ध कह सकते हैं। परन्तु जो संसार से मुक्त हो चुके हैं उनके वर्णादि का सम्बन्ध नहीं है। अत: जीव की वर्णादि के साथ व्याप्ति मानना सर्वथा अयुक्त है। निश्चय से जो वस्तु सब अवस्थाओं में उस रूप से व्याप्त हो और उस स्वरूप की व्याप्ति से कभी भी रहित न हो उन दोनों का परस्पर में तादात्म्य सम्बन्ध होता है। जैसे अग्नि सब अवस्थाओं में उष्णगुण के साथ व्याप्त होकर रहती है और उष्ण स्वरूप की व्याप्ति से कभी भी शून्य नहीं होती, इसलिये अग्नि का उष्णगुण के साथ तादात्म्य सम्बन्ध है। ऐसे ही पुद्गलद्रव्य सब अवस्थाओं में वर्णादि स्वरूप से व्याप्त रहता है, किसी भी अवस्था में वर्णादि रहित नहीं होता, अत: पुद्गलद्रव्य का वर्णादिगणों के साथ तादात्म्य सम्बन्ध है। यद्यपि जीव की संसार अवस्था में वर्णादिकों के साथ व्याप्ति है और संसार अवस्था में वर्णादिकों के साथ व्याप्ति है और संसार अवस्था में वर्णादिक की व्याप्ति की कभी शून्यता भी नहीं है तो भी जीव की सब अवस्थाएँ ऐसी नहीं है जो वर्णादिक की व्याप्ति की अपेक्षा करती हों, क्योंकि मोक्ष जीव की ऐसी अवस्था है जिसमें वर्णादिक का सम्बन्ध नहीं है। अत: यह सिद्ध हुआ कि जीव का वर्णादिक के साथ तादात्म्य सम्बन्ध किसी भी तरह नहीं है।।६ । । __ आगे, यदि जीव का वर्णादिक के साथ तादात्म्य सम्बन्ध मानने का दुराग्रह है, तो उसमें यह दोष आवेगा यह कहते हैं जीवो चेव हि एदे सव्वे भावा त्ति मण्णसे जदि हि। जीवस्साजीवस्स य णत्थि विसेसो दु दे कोई।।६२।। अर्थ- यदि तू ऐसा मानता है कि ये वर्णादिक सब भाव जीव हैं तो तेरे मत में जीव और अजीव में कोई विशेषता नहीं रह जावेगी। विशेषार्थ- पुद्गल के जो वर्ण, रस आदि गुण हैं उनमें क्रम से अनेक परिणतियों का आविर्भाव और तिरोभाव होता रहता है। जैसे आम का वर्ण अपक्व अवस्था में हरा रहता है और पक्व अवस्था में पीला हो जाता है, अपक्व अवस्था में उसका रस आम्ल रहता है और पक्व अवस्था में मधुर हो जाता है। इस प्रकार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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