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समयसार
आगे फिर आशङ्का होती है कि ये सब भाव निश्चय से जीव के क्यों नहीं है? इसी का आचार्य नीचे लिखी गाथा से उत्तर देते हैं
एएहिं य संबंधो जहेव खीरोदयं मुणेदव्वो। ण य हुंति तस्स ताणि दु उवओगगुणाधिगो जम्हा ।।५७।।
अर्थ- इन वर्णादिक के साथ जीव का सम्बन्ध दूध और पानी के समान जानना चाहिये, क्योंकि जीव उपयोगगुण से अधिक है। अत: वर्णादिक जीव के नहीं हैं।
विशेषार्थ- यद्यपि क्षीर और जल का परस्परावगाह लक्षण सम्बन्ध है और उसे ही देखकर लोग क्षीर और जल को एक मानते हैं, तो भी क्षीर का कुछ ऐसा विलक्षण स्वाद है कि जो जल में नहीं पाया जाता अथवा क्षीर में क्षीरत्वनाम का एक ऐसा असाधारण धर्म हैं जैसा कि अग्नि में उष्णतागुण होता है। उसी क्षीरत्वनामक असाधारण धर्म के द्वारा क्षीर जल से भिन्न है। जिस प्रकार अग्नि का उष्णता के साथ तादात्म्य सम्बन्ध है उस प्रकार क्षीर का जल के साथ तादात्म्य सम्बन्ध नहीं है, अत: निश्चय से क्षीर जल नहीं है। इसी प्रकार वर्णादिमान् जो पुद्गलद्रव्य है उसी का परिणमन शरीर तथा ज्ञानावरणादि कर्म हैं और इन्हीं के निमित्त से रागादिक औपाधिक भाव होते हैं। इन सबके साथ यद्यपि जीव का परस्परावगाहलक्षण सम्बन्ध अनादिकाल से धारावाहीरूप में चला आ रहा है और इसी को देखकर अज्ञानी लोग शरीरादि परद्रव्य और जीव को एक मान लेते हैं, परन्तु जैसा उष्णगुण के साथ अग्नि का तादात्म्य सम्बन्ध है वैसा शरीरादिक का जीव के साथ तादात्म्य नहीं है। जीव का स्वलक्षण उपयोगगुण है, उसी के साथ उसका तादात्म्य सम्बन्ध है, यह उपयोग गुण एक जीवद्रव्य में ही पाया जाता है, अन्य व्यों में नहीं। इसलिए इस असाधारण गुण के कारण जीवद्रव्य सब द्रव्यों से अतिरिक्त पृथक् अनुभव में आता है। अत: निश्चयनय से वर्णादिक पुद्गल के परिणाम हैं, जीव के नहीं।।५७।।
___ आगे प्रश्न होता है कि यदि वर्णादिक जीव के नहीं हैं तो यह पुरुष काला है, यह गोरा है, यह मोटा है, यह पतला है इत्यादि व्यवहार विरोध को प्राप्त होता है? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य व्यवहार का अविरोध दिखलाते हैं। अथवा पूर्वोक्त व्यवहार में जो विरोध आता है उसका लोक प्रसिद्ध दृष्टान्त के द्वारा परिहार करते हैं
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