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जीवाजीवाधिकार
अर्थ- वर्ण आदि को लेकर गुणस्थान पर्यन्त के ये भाव व्यवहारनय से जीव के हैं, परन्तु निश्चयनय से कोई भी जीव के नहीं है।
विशेषार्थ- यहाँ पर व्यवहारनय पर्याय के आश्रय है, अतएव इसकी दृष्टि में इस जीव का अनादिकाल से पुद्गलद्रव्य के साथ बन्ध होने के कारण जिस तरह कुसुम्भरङ्ग सूती वस्त्र का कहा जाता है उसी तरह औपाधिकभावों का अवलम्बन कर उपर्युक्त सब भाव जीव के कहे जाते हैं, क्योंकि व्यवहारनय परकीय भावों को पर का कहता है और निश्चयनय केवल द्रव्य के आश्रित होने से सम्पूर्ण परभावों का पर में निषेध करता है। अत: निश्चयनय की दृष्टि में वर्णादि से लेकर गुणस्थानपर्यन्त जितने भी भाव हैं, वे सब जीव के नहीं हैं। इस तरह वर्ण आदि को लेकर गुणस्थानपर्यन्त तक के भाव व्यवहारनय से जीव के हैं, परन्तु निश्चयनय से जीव के नहीं है।
परमागम में पदार्थ को द्रव्य और पर्यायरूप कहा गया है। इसी को दर्शनशास्त्र में सामान्य विशेषात्मक कहा जाता है क्योंकि द्रव्य सामान्य है और पर्याय विशेष है। जो नय द्रव्य की प्रधानता से वर्णन करता है वह द्रव्यार्थिकनय कहलाता है। इसी को निश्चयनय कहते हैं और जो पर्याय की प्रमुखता से वर्णन करता है वह पर्यायार्थिकनय कहलाता है। इसी को व्यवहारनय कहते हैं। पर्याय दो प्रकार की होती हैं, एक स्वनिमित्तक और दूसरी स्वपरनिमित्तक। कालादि सामान्यनिमित्तों की विवक्षा न करने पर धर्म, अधर्म, आदि सभी द्रव्यों का अनादिकाल से जो परिणमन चला आ रहा है वह स्वनिमित्तक पर्याय है और पुद्गलद्रव्य के संयोग से जीव में जो रागादिकरूप परिणमन होता है वह, तथा जीव के संयोग से पुद्गल में जो कर्मादिरूप परिणमन होता है वह स्वपरनिमित्तक पर्याय है। इनमें स्वनिमित्तक पर्याय तो द्रव्य की है ही, परन्तु व्यवहारनय परनिमित्तक (विभाव) पर्याय को भी द्रव्य की है ऐसा वर्णन करता है। जिस प्रकार कुसुम्भरङ्ग से रंगा हुआ वस्त्र लाल दिखता है, यहाँ जो लालिमा है वह वास्तव में कुसुम्भरङ्ग की है, परन्तु व्यवहार में वस्त्र को लाल कहा जाता है। अर्थात् लालिमा वस्त्र की है ऐसा निरूपण किया जाता है। इसी प्रकार रागादिक द्रव्यकर्म के उदय से आत्मा राग-द्वेषी देखा जाता है। यहाँ राग और द्वेष, द्रव्यकर्म के उदय से जायमान होने के कारण द्रव्यकर्म के हैं परन्तु व्यवहार में आत्मा को रागी-द्वेषी कहा जाता है अर्थात् रागद्वेष आत्मा के हैं ऐसा निरूपण किया जाता है। परन्तु जब द्रव्यार्थिकनय अथवा निश्चयनय की अपेक्षा विचार किया जाता है तब रागादिक जीव के स्वनिमित्तक परिणमन नहीं हैं इसलिए ये जीव के नहीं हैं, ऐसा निरूपण किया जाता है। अत: अन्य शास्त्रों में जहाँ रागादिक को जीव का कहा गया है वह व्यवहारनय का कथन जानना चाहिये।।५६।।
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