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समयसार
क्षपकश्रेणीवाला अनिवृत्तिकरण परिणामों से युक्त बादरसाम्पराय), सूक्ष्मसाम्परायोपशमकक्षपक (उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणीवाला सूक्ष्मसाम्पराय), उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय, सयोगकेवली और अयोगकेवली ये जो चौदह गुणस्थान हैं वे जीव नहीं हैं, क्योंकि पुद्गलद्रव्य के परिणाम होने के कारण अनुभूति से भिन्न हैं। ये सब वर्णादिक जीव के क्यों नहीं है? इसका उत्तर देते हुए आचार्य महाराज ने कहा है क्योंकि ये सब पुद्गलद्रव्य के परिणाम हैं अर्थात् इनमें कितने ही साक्षात् पुद्गलद्रव्य के परिणमन हैं और कितने ही पुद्गलद्रव्य के निमित्त से जायमान आत्मा के विकारीभाव हैं। जिस प्रकार अग्नि के निमित्त से होनेवाली जल की उष्णता यथार्थ में अग्नि की कही जाती है उसी प्रकार पुद्गलकर्म के निमित्त से होनेवाले रागादिक पुद्गल के कहे जाते हैं।।५०-५५।। अब वर्णादिक का पृथक्पन अमृतचन्द्र स्वामी कलशा के द्वारा प्रकट करते हैं
शालिनीछन्द वर्णाद्या वा रागमोहादयो वा
भिन्ना भावाः सर्व एवास्य पुंसः। तेनैवान्तस्तत्त्वतः पश्यतोऽमी
नो दृष्टाः स्युर्दृष्टमेकं परं स्यात् ।।३७।। अर्थ- वर्णादिक अथवा रागमोहादिक सभी भाव इस आत्मा से भिन्न हैं, इसलिये परमार्थ से अन्तःकरण में अवलोकन करनेवाले पुरुष को ये सब भाव नहीं दिखते, केवल एक आत्मतत्त्व ही उसे दिखाई देता है।
भावार्थ- वर्णादिक व रागमोहादिक जितने भी भाव ऊपर कहे गये हैं वे सब जीव के नहीं हैं क्योंकि जीव से भिन्न हैं। यही कारण है कि जो अन्तर्दृष्टि से देखनेवाले हैं अर्थात् परमार्थ से जीव के स्वरूप को देखते हैं वे इन सब भावों को जीव में नहीं देखते। जो जीव की सब अवस्थाओं में पाये जावें, वहीं तो जीव के भाव हैं, अतएव जीव की सब अवस्थाओं में व्याप्त होकर रहनेवाला केवल एक चैतन्यभाव है उसी को परमार्थ से देखते हैं।।३७।।।
अब यहाँ पर यह आशङ्का होती है कि ये भाव यदि जीव के नहीं हैं तो अन्य सिद्धान्तशास्त्रों में ये जीव के क्यों कहे गये हैं? इसका उत्तर स्वयं आचार्य नीचे की गाथा में देते हैं
ववहारेण दु एदे जीवस्स हवंति वण्णमादीया। गुणठाणंता भावा ण दु केई णिच्छयणयस्स ।।५६।।
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