________________
जीवाजीवाधिकार
८५
तथापि राजा सम्बन्धिनी सेना होने से उस स्थल में यह व्यवहार उपयुक्त ही है। इसी तरह यह जीव सम्पूर्ण रागस्थानों में व्याप्त होकर रहता है, यह कथन होता है। परन्तु निश्चय से विचारा जावे तो एक जीव का समस्त रागादि स्थानों में व्याप्त होकर रहना अलीक है क्योंकि परमार्थ से जीव एक ही है। पर्यायदृष्टि से देखा जावे तो ये अध्यवसानादिक भाव जीव के ही परिणमन विशेष हैं और जबतक जीव के मोहादिक कर्मों के सम्बन्ध से संसार है तबतक ये सब नियम से होते रहेंगे। फिर भी द्रव्यदृष्टि से आत्मा एक ही है क्योंकि सामान्यदृष्टि में विशेष कथन गौण रहता है।।४७,४८।।
__ अब शिष्य का यह प्रश्न है कि यदि वे अध्यवसानादिक भाव जीव नहीं हैं तो एक टङ्कोत्कीर्ण परमार्थ जीव का क्या स्वरूप है? आचार्य इसका उत्तर देते हैं
अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसइं।
जाणअलिंगग्गहणंजीवमणिद्दिट्ठसंठाणं।।४९।। अर्थ- हे भव्य! तू आत्मा को ऐसा जान कि वह रसरहित है, रूपरहित है, गन्धरहित है, अव्यक्त है अर्थात् स्पर्शरहित है, शब्दरहित है, अलिङ्ग ग्रहण है अर्थात् किसी खास लिङ्ग से उसका ग्रहण नहीं होता तथा जिसका कोई आधार निर्दिष्ट नहीं किया गया है ऐसा है किन्तु चेतनागुण वाला है। आत्मा में यह चेतना ही ऐसा विलक्षण गुण है जो अपना और पर का प्रतिभास करा रहा है। इसी गुण की सामर्थ्य है कि वह स्वपर को बोधित करा रहा है। इसके अभाव में सर्वत्र अन्धकार ही है।
विशेषार्थ- वस्तस्वरूप के प्रतिपादन के दो अङ्ग हैं—पहला पररूपापोहन अर्थात् पर से उसकी व्यावृत्ति करना और दूसरा स्वरूपोपादान अर्थात् अपने रूप का ग्रहण करना। यहाँ जीवपदार्थ का वर्णन करते हुए आचार्य महाराज ने दोनों अङ्गों को अपनाया है। प्रथम अङ्ग में पर की व्यावृत्ति करते हुए कहा है कि जीव रस, रूप, गन्ध, स्पर्श, शब्द, लिङ्ग तथा आकार से रहित है क्योंकि ये सब पद्गल के धर्म हैं और दूसरे अङ्ग में स्वरूप का ग्रहण करते हुए कहा है कि वह चेतनागुण से सहित है अर्थात् चेतना जीव का स्वगुण है और रसादिक साथ में लगे हुए पुद्गल के गुण हैं। इन्हीं अङ्गों का स्पष्ट वर्णन इस प्रकार है___ जो आत्मा है वह पुद्गलद्रव्य के गुणों से भिन्न है क्योंकि पुद्गल और जीव भिन्न-भिन्न लक्षण वाले हैं, यही दिखाते हैं-आत्मा पुद्गलद्रव्य से भिन्न है क्योंकि रसगुण उसमें नहीं है, जिसमें रसगुण नहीं वह पुद्गलद्रव्य से भिन्न है और आत्मा
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org