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________________ समयसार स्वयं रसगुणात्मक नहीं, इससे पुद्गलद्रव्य का गुण भी नहीं है। परमार्थ से आत्मा पुद्गलदगव्य का स्वामी भी नहीं है। इसी से द्रव्येन्द्रिय के अवष्टम्भ से रसरूप नहीं है तथा भावेन्द्रिय के अवलम्बन से भी रसरूप नहीं है क्योंकि आत्मा में स्वभाव से क्षायोपशमिक भाव का अभाव है। आत्मा का जो ज्ञान है वह सकल ज्ञेय साधारण है अर्थात् सब ज्ञेयों को जानने की सामर्थ्य से युक्त है। अतः अकेले रसज्ञान के सद्भाव से भी रसरूप नहीं है। ज्ञेयों को जाननेवाला ज्ञान है परन्तु ज्ञेयरूप नहीं हो जाता। अत: रस के ज्ञान का आश्रय होने पर भी स्वयं रसरूप परिणत नहीं है। इस तरह छह प्रकार से आत्मा रसरूप न होने से अरस है। इसी तरह रूप, गन्ध तथा स्पर्श का भी निषेध जानना चाहिये। अर्थात् आत्मा न रूपस्वरूप है, न गन्धरूप है और न स्पर्शरूप है। रूप, रस, गन्ध और स्पर्श तो पद्गल के गण हैं। सो जिस प्रकार आत्मा इन पुद्गल के गुणों से रहित है उसी प्रकार पुद्गलद्रव्य के पर्यायरूप भी नहीं है अर्थात् पौद्गलिक पर्यायों से रहित है। आत्मा पुद्गलद्रव्य से अन्य है अतएव शब्दपर्याय रूप नहीं है। तथा पुद्गलद्रव्य की पर्याय आत्मा नहीं है अतएव शब्दपर्यायरूप नहीं है। द्रव्यइन्द्रिय के अवष्टम्भ से भी शब्दपर्याय रूप नहीं है क्योंकि परमार्थ से पुद्गलद्रव्य का स्वामी नहीं है। स्वभाव से क्षायोपशामिक भाव आत्मा में नहीं है अतएव भावेन्द्रिय के अवलम्बन से भी शब्द रूप नहीं है। आत्मा का ज्ञान सकल ज्ञेय साधारण है अत: केवल शब्दज्ञान रूप न होने से भी आत्मा शब्दरूप नहीं है, इस तरह छह प्रकार से पुद्गल पर्याय से भी आत्मा भिन्न है। अब अनिर्दिष्ट संस्थान को कहते हैं द्रव्यान्तर जो पद्गल द्रव्य है उसके द्वारा रचित शरीर के संस्थान (आकार विशेष) के द्वारा आत्मा के संस्थान का निरूपण होना अशक्य है। जिनके संस्थान नियत नहीं ऐसे अनन्त शरीरों में नियत स्वभाव से रहता है अत: शरीर के संस्थानों से भी उसके संस्थान का निर्णय नहीं हो सकता है। संस्थान नामकर्म का विपाक पुद्गलों में है अत: इससे भी आत्मा के संस्थान का निर्णय नहीं हो सकता। भिन्न-भिन्न आकार से परिणमने वाले जो समस्त पदार्थ हैं वे ज्ञान में प्रतिबिम्बित होते हैं अर्थात् ज्ञान ज्ञेयों के निमित्त से तद्-तद् ज्ञेयों के आकार परिणमन करता है फिर भी अखिल लोक के संवलन से शून्य रहता है, केवल अपनी निर्मल अनुभूतिरूप ही रहता है अतएव आत्मा का कोई निर्दिष्ट संस्थान नहीं है। इस तरह चार हेतुओं से भी आत्मा अनिर्दिष्ट संस्थान है। अब अव्यक्त बताने का उपक्रम करते हैं षड्द्रव्यात्मक लोक है। वह ज्ञेय है तथा व्यक्त है, उससे जीव अन्य है अर्थात् लोक व्यक्त है जीव व्यक्त नहीं, इससे अव्यक्त है। कषाय का समूह जो भावकभाव है वह व्यक्त है उससे जीव नामक पदार्थ भिन्न है, इसलिये भी आत्मा अव्यक्त है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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