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समयसार
ने लिखा है-जीव मरो, चाहे मत मरो, जिनकी अयत्नाचार से प्रवृत्ति होती है उनके नियम से हिंसा होती है और जहाँ पर यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति है वहाँ बाह्य में जीव का घात हो अथवा न हो, हिंसा नहीं होती। जैसे तपोधन यतीन्द्र ईर्यासमितिपूर्वक गमन कर रहे हैं, चार हाथ प्रमाण पृथिवी को सावधानतापूर्वक देख कर पैर उठाते हैं उस समय यदि काल का प्रेरा सूक्ष्म जीव उनके पगतल के नीचे दबकर मरण को भी प्राप्त हो जावे तो भी तपोधन यतीन्द्र हिंसा के भागी नहीं, क्योंकि उनके प्रमाण नहीं है।।४६।।।
अब किस दृष्टान्त से इस व्यवहार की प्रवृत्ति हुई ? यही कहते हैंराया हु णिग्गदो त्ति य एसो बलसमुदयस्स आदेसो। ववहारेण दु उच्चदि तत्थेको णिग्गदो राया ।।४७।। एमेव य ववहारो अज्झवसाणादिअण्णभावाणं । जीवो त्ति कदो सुत्ते तत्थेको णिच्छिदो जीवो ।।४८।।
(जुगल) अर्थ- जिस तरह जहाँ पर सेना का समुदाय निकलता है वहाँ पर व्यवहार से यह कथन होता है कि यह राजा निकला। निश्चय से विचार किया जाये तो सेना समुदाय से राजा भिन्न पदार्थ है परन्तु व्यवहार से ऐसा कथन होता है कि राजा निकला, परमार्थ से राजा एक है। इसी तरह अध्यवसानादिक तो अन्य भाव हैं उनको परमागम में ‘जीव हैं' ऐसा व्यवहार से निरूपण किया है, निश्चय से विचार किया जावे तो जीव एक ही है।
विशेषार्थ- जैसे—'यह राजा पञ्च योजन के विस्तार को व्याप्त कर निकल रहा है' इस कथन में निश्चय से परामर्श किया जावे तो एक राजा का पञ्च योजन क्षेत्र में विस्तार होना अलीक है, तो भी व्यवहारी मनुष्यों का सेनासमूह में 'राजा' ऐसा व्यवहार होता है और इसलिए व्यवहार दृष्टि से वह अलीक भी नहीं है। परमार्थ से यद्यपि राजा एक है और उसका पञ्चयोजन विस्तार में सद्भाव होना असंभव है
१. मरदु व जियदु व जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा । __ पयदस्स णत्थि बंधो हिंसामेत्तेण समिदस्स ।। -प्रवचनसार गाथा २१७। २. उच्चालयम्हि पाए इरियासमिदस्स णिग्गमत्थाए ।
आबाधेज्ज कुलिंगं मरिज्ज तं जोगमासेज्ज ।।१।। ण हि तस्स तण्णिमित्तो बंधो सुहुमो वि देसिदो समये । मुच्छा परिग्गहो च्चिय अज्झप्पमाणदो दिह्रो ।।२।। - प्रवचनसार तात्पर्यवृत्ति।।
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